
बैजनाथ मिश्र
बिहार में चुनाव प्रचार मोथा चक्रवात के ब्रेक के बाद स्पीड पकड़ चुका है. छह नवंबर को राज्य की आधी विधानसभा सीटों पर वोट पड़ जायेंगे. इन सीटों पर चुनाव प्रचार चार नवंबर को थम जाएगा. इस बार चुनाव उलझा हुआ है. इसका कारण हैं प्रशांत किशोर. उन्हें मिलने वाले वोट अधिकतर एनडीए की झोली से ही जायेंगे. इससे यह कयास लगाना गलत होगा कि यदि प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज मैदान में नहीं होती तो ये वोट सत्ता के विरोध में यानी महागंठबंधन में जाते. दरअसल, जन सुराज नहीं लड़ रही होती तो एनडीए के पक्ष में माहौल गाढ़ा हो गया होता. इस पार्टी के समर्थक और मतदाता (मुस्लिम बहुल सीटों को छोड़ दें तो) महागंठबंधन के साथ जाने वाले नहीं हैं. इसीलिए एनडीए के प्रचार वीर जनसुराज पर हमलावर नहीं हैं. वे चुनाव को दो ध्रुवीय बनाने की जुगत में हैं ताकि जनसुराज की ओर झुके मतदाता एनडीए में लौट आयें. ऐसी कम सीटें हैं जहां जनसुराज महागंठबंधन को पानी पिला रही है. इनमें एक जोकीहाट सीट भी है.
इस बीच नीतीश कुमार ने एक भावुक संदेश जारी कर जनता से पूछा है कि उन्होंने बीस साल में बतौर मुख्यमंत्री अपने लिए या अपनों के लिए किया क्या है? इसके बरक्स एक बदलाव का भाव तो है. वह भाव गाढ़ा होगा या नहीं और होगा तो कितना, इसका आकलन मुश्किल है. एनडीए खास तौर से भाजपा ने लालू-राबड़ी के जंगलराज को केंद्रीय मुद्दा बना दिया है और उसमें राजद एवं कांग्रेस के प्रथम परिवारों की भ्रष्ट करतूतों की छौंक लगा दी है. इससे सत्ता विरोधी माहौल थोड़ा फीका पड़ने लगा है. अब यह सवाल उठने लगा है कि परिवर्तन सिर्फ परिवर्तन के लिए होना चाहिए या बेहतरी के लिए और यह भी कि क्या बेहतरी की गारंटी राजदनीत सरकार दे सकती है?
महागंठबंधन की कुलांचे भरती तमन्नाएं इसी सवाल पर ठिठक जा रही हैं. हालांकि उसने उम्मीदवार ठोंक-बजाकर उतारे हैं और अति पिछड़ा को भी टिकट देकर एनडीए के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश भी की है. वैसे भी महागंठबंधन के पास करीब 35 फीसदी आधार वोट है. इसमें पांच-छह फीसदी जुड़ जाये तो सरकार बनाने का जुगाड़ बैठ जायेगा. क्या ऐसा हो पाएगा, यही इस चुनाव का यक्ष प्रश्न है. अगर पिछले चुनाव में चिराग की पार्टी को मिले छह प्रतिशत वोट एनडीए के खाते में जोड़ दें और मुकेश सहनी की पार्टी को मिले वोटों को भी महागंठबंधन में जोड़ दें तो भी एनडीए का पलड़ा भारी दिख रहा है.
अलबत्ता अगर जनसुराज ने एनडीए के वोट बैंक को थोड़ा बहुत भी कतर दिया तो बाजी पलट जाएगी. पिछले चुनाव में मगध, शाहाबाद और सारण प्रमंडलों में एनडीए की हालत पतली थी. इस बार माहौल थोड़ा अलग है, पर कितना, इसका अनुमान वोटिंग पैटर्न के बाद ही लगाया जा सकता है. देखना यह भी होगा कि महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों के बराबर ही रहता है या अधिक. यदि महिलाओं का टर्न आउट बढ़ा तो सारे समीकरण ध्वस्त हो जायेंगे और महागंठबंधन हाथ मलते रह जाएगा.
इस बार चुनाव में भाजपा के खिलाफ तयशुदा मुस्लिम मतदाताओं का मन थोड़ा हिला हुआ है. इसे हिलाया है असदुद्दीन ओवैसी और प्रशांत किशोर ने. ओवैसी ने जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का दावं महागंठबंधन पर चल दिया है. यह चस्पां भी इसलिए हो रहा है कि गंठबंधन ने मुकेश सहनी को तो बतौर उपमुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किया है, लेकिन किसी मुस्लिम को यह ओहदा देने का वादा नहीं किया है. गंठबंधन को शायद यह भय सता रहा था कि किसी मुस्लिम पर फोकस किया गया तो हिंदू वोटरों की गोलबंदी तेज हो जायेगी. यदि ऐसे होता तो दिल के अरमां बीच चुनाव में ही आंसुओं में बह जाते. लेकिन इस तरह के ध्रुवीकरण का प्रयास तो भाजपा कर ही रही है. वह बटेंगे तो कटेंगे का नारा नहीं लगा रही है, लेकिन हिंदू प्रतीकों के उल्लेख से संकोच भी नहीं कर रही है.
इसी बीच राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर तंज कसने के मकसद से छठ पर्व को लेकर ऐसी भोंड़ी टिप्पणी कर दी कि मोदी ने मुजफ्फरपुर की चुनावी सभा में उसे छठ की तौहीन का मुद्दा बना दिया. हालांकि नीतीश कुमार अल्पसंख्यक कल्याण के अपने कार्यों का लगातार उल्लेख कर रहे हैं, लेकिन वह भाजपा की हिंदुत्ववादी चाल का विरोध अंदरखाने भी नहीं कर रहे हैं. इस चुनाव की एक अन्य खास बात यह है कि गंठबंधन के साथ कांग्रेस उस तरह से चुनाव प्रचार में नहीं लगी है जिस प्रकार भाजपा एनडीए को मदद पहुंचा रही है. भाजपा ने लगभग अपने सभी महारथियों को इस चुनाव में झोंक दिया है जबकि राहुल ब्रिगेड केवल हाजिरी लगाने या खानापूरी के मकसद से ही दौरे कर रही है. एनडीए के सभी बड़े नेता सहयोगियों की सीटों पर जोर लगाने में तनिक भी कोताही नहीं कर रहे हैं जबकि गंठबंधन को एक मात्र भाकपा (माले) का ही भरपूर सहयोग मिल रहा है. मगध और शाहाबाद में गंठबंधन की मजबूत उपस्थिति का सबसे बड़ा कारण यही है. माले भाजपा की ही तरह एक काडर आधारित पार्टी है. यानी एडीए का प्रचार जहां संगठित और सुव्यवस्थित है, वही गंठबंधन का प्रचार बिखरा हुआ है. अकेले तेजस्वी ही मुकेश सहनी को साथ लेकर पूरी शिद्दत से लगे हैं.
बहरहाल भाजपा इस चुनाव को पूरी ताकत से इसलिए लड़ रही है, क्योंकि इसके परिणाम का असर अगले साल होने वाले कुछ राज्यों के चुनाव पर पड़ेगा. वहां नीतीश जैसा सहयोगी भी नहीं होगा. यानी भाजपा यह चुनाव हर हाल में जीतना चाहती है, केवल नीतीश के लिए नहीं, अपने भविष्य के लिए. भाजपा के दो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मोहन यादव ने विपक्षी खेमे में थोड़ी चिंता बढ़ा दी है. आदित्यनाथ तो हिंदू आइकॉन हैं ही, मोहन यादव ने यादवों के बीच हलचल पैदा कर दी है. कुछ क्षेत्रों में मोहन यादव और तेजस्वी यादव की तुलना यादव ही करने लगे हैं.
सभी ने जातीय हिसाब-किताब बैठाकर ही उम्मीदवार उतारा है. सच यह भी है कि सबके साथ बली हैं, खांटी दली हैं तो निर्दली और दलदली भी हैं. इस मामले में "को बड़ छोट कहत अपराधू" की उक्ति चरितार्थ होती है. लेकिन मुख्य सवाल या जिज्ञासा यह है कि क्या इस चुनाव में भी जातियां टूटेंगी या जातियों के बीहड़ में फंसा बिहार परिणाम आने के बाद छाती पीटता, माथा कूटता रह जायेगा और अलग-अलग जातियां अपने नाकाबिल रहनुमाओं के बूते लोकतंत्र की छाती पर लाटा कूटेंगी? जो समाज संकीर्णताओं, क्षुद्रताओं और अलग-अलग बाड़ेबंदियों में फंसकर अपना प्रतिनिधि चुनता है, वह पश्चाताप के लिए अभिशप्त होता है और व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठाने के अपने दायित्व से वंचित हो जाता है.
देखना है कि क्या बिहार अपनी प्रचलित, स्थापित जातीय परंपरा से हटकर सुयोग्य प्रत्याशियों को चुनता है या फिर "हम नहीं सुधरेंगे" की राह पर ही चलता है. दुनिया चांद पर बसने जा रही है और बिहार वंशवाद, परिवारवाद, जातिवाद और धनपशुओं तथा बाहुबलियों की गिरफ्त से निकलने के लिए कसमसाता भी नहीं दिख रहा है.

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