Faisal Anurag
क्या कांग्रेस को नए प्रयोग से नवजीवन मिलेगा? यह प्रयोग वास्तव में एक स्तर पर वैचारिक स्पष्टता और आक्रामक तेवर को लेकर है, जिसे नए लागों और युवाओं को आगे कर अंजाम देने का प्रयास किया जा रहा है. कांग्रेस के भीतर विचारों का संघर्ष लंबे समय से जड़ता का शिकार है. ठीक चुनाव के पहले पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह को किनारा करने का सवाल हो या फिर राजस्थान में मुख्यमंत्री बदले जाने का कयास. गुजरात में नए लोगों को नेतृत्व देना हो या फिर उत्तर प्रदेश के कांग्रेस को युवा तेवर और पहचान देने का सवाल वर्तमान जड़ता के दौर से कांग्रेस को बाहर निकलने में सहायक होगा या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है. लेकिन एक बात तो कही ही जा सकती है कि कांग्रेस खुद को बदलने का प्रयास कर रही है.
वैसे तो मुख्यमंत्री को बदलने का कांग्रेस का इतिहास पुराना है. लेकिन पंजाब की घटनाएं बता रही हैं कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व यह ठान चुका है कि वह ब्लैकमेल होने के बजाय जोखिम लेने को तैयार है. कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी का जिस तरह कांग्रेस ने स्वागत किया है, वह भी बताता है कि वह पुराने नेताओं के मध्यमार्गी तेवर और समझौता परस्त रूझान के खिलाफ है. कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में जो कुछ कहा, वह कांग्रेस के मंच पर ताजगी का अनुभव देता है. कांग्रेस के प्रेस कांफ्रेस में लंबे समय के बाद ठोस तरीके से नरेंद्र मोदी की सरकार पर हमले हुए और यही नहीं लोकतंत्र,संविधान और आइडिया ऑफ इंडिया जैसे शब्दों का उल्लेख करते हुए भविष्य की रूपरेखा का संकेत भी दे दिया गया.
गुजरात में अगले साल ही चुनाव होने जा रहा है. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को जबदरस्त चुनौती दिया था. लेकिन 2018 की तुलना में 2022 की रणनीति बदली हुई है. गुजरात कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की जगह हार्दिक पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष पूरे अधिकार के साथ बनाया गया है. जिन तीन युवा नेताओं ने गुजरात की राजनीति में हलचल पैदा कर दी थी, उनमें दो अब कांग्रेस के साथ हैं. जिग्नेश मेवानी ने 2017 का चुनाव निर्दलीय जीता था, लेकिन कांग्रेस ने उनके खिलाफ प्रत्याशी नहीं दिया था. हार्दिक पटेल कांग्रेस में तब शामिल नहीं हुए थे, लेकिन प्रचार किया था. एक अन्य युवा नेता अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस से चुनाव लड़ जीत हासिल की थी. लेकिन बाद में वे बीजेपी में चले गए. विधानसभा से इस्तीफा देकर, उन्होंने उपचुनाव लड़ा लेकिन कांग्रेस के हाथों ही पराजित हो गए. वे भाजपा में हैं लेकिन हाशिए पर. जिग्नेश ने एक दलित नेता के रूप में पूरे देश में पहचान बनायी है. गुजरात में हार्दिक की जोड़ी के साथ वे एक बड़ी चुनौती दे सकते हैं. सर्वे बता रहे हैं कि भाजपा के मुख्यमंत्री बदले जाने के बावजूद भाजपा का संकट बरकरार है.
गुजरात के एक पत्रकार ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है : 41 वर्षीय मेवानी को ऐसे समय में कांग्रेस की जरूरत है. जब भाजपा एक ऐसे राज्य में संकट में दिख रही है, जहां उसने दशकों तक शासन किया है, तो पार्टी को मेवानी जैसी आवाजों और चेहरों की जरूरत है, अगर राहुल गांधी को “पुनर्निर्माण” की अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है तो.
बिहार में तो कांग्रेस बेहद उत्सहित नजर आ रही है. प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कोकब कादरी ने तो यहां तक कह दिया है, कन्हैया के आने से कांग्रेस की जड़ता खत्म होगी और पार्टी नयी आक्रामकता के साथ संघर्ष करेगी. यही नहीं उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस एक नया आकार ग्रहण करना चाहती है, जहां उसने न केवल वंचित तबकों के साथ गहरा रिश्ता बनाना शुरू किया है, बल्कि उन्हीं समुदायों को मुख्य नेतृत्व का हिस्सा भी बना दिया है. इसमें अनेक ऐसे युवा हैं, जो लेफ्ट आंदोलन का हिस्सा रहे हैं. इसमें सबसे प्रमुख नाम संदीप सिंह का है, जो जेएनयू के अध्यक्ष रहे हैं और भाकपा माले में रहे. इस समय वे प्रियंका गांधी के मुख्य सलाहकार की भूमिका निभा रहे हैं.
दक्षिण भारत के राज्यों में भी कांगेस ने युवा नेताओं को आगे किया है. केरल के अनेक दिग्गज इससे नाराज दिख रहे हैं. कई ने तो पार्टी भी छोड़ दिया है. राहुल गांधी ने जुलाई में ही कह दिया था कि जिन्हें मोदी सरकार से डर लगता है वे पार्टी छोड़ कर चले जाएं. उन्होंने यह भी कहा था कि कांग्रेस के बाहर बहुत से लोग हैं, जो निडरता से मोदी की निरंकुशता से लड़ रहे हैं. राहुल के कई करीबी उन्हें छोड़ जब भाजपा में जा रहे थे, तब उन्होंने नए कांग्रेस और उसके नए विचारों को लेकर संकेत दिया था.
यह तो स्पष्ट है कि केवल नेताओं के आने जाने से किसी भी पार्टी का पुनर्गठन नहीं होता, उससे गति जरूर मिलती है. जरूरी बात यह है कि तीस साल पहले कांग्रेस ने ही जिस अनुसार आर्थिक नीतियों को नव उदारवाद के नाम पर शुरू किया था, क्या उस का विकल्प राहुल गांधी और कांग्रेस देने को तैयार है. 2019 के चुनाव के समय एक सभा में राहुल गांधी ने जरूर कहा था कि 1991 में जिन आर्थिक प्रयोगों को शुरू किया गया था वे अब अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने की क्षमता खो चुके हैं. किसान आंदोलन ने भी असामनता बढ़ाने वाली और संसाधनों पर एकाधिकार कायम करने वाली आर्थिक संरचना के खिलाफ आवाज बुलंद किया है.
मोदी सरकार इस समय तमाम पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को निजी घरानों को बेचने पर आमादा है. धर्मनिरपेक्षता,गांधी-नेहरू विचार हो या अंबेडकर के संविधान को बचाने का सवाल, इन चुनौतियों का सामना किए बगैर सुरक्षित नहीं रह सकेंगे. जिसकी बात नए प्रयोग के तौर पर की जा रही है. देखना है कि कांग्रेस में शामिल हो रहे युवा नीतियों को बदलने में कितना दखल देते हैं या फिर खुद ही बदल जाते हैं. लेफ्ट धारा से जेएनयू के अध्यक्ष बने शकील अहमद खान, बत्तीलाल वैरवा, सैयद नासेर हुसैन,संदीप सिंह और मोहित पांडेय तो कांग्रेस में पहले से मौजूद हैं, लेकिन नीतियों को प्रभावित नहीं कर पाए हैं.