
बैजनाथ मिश्र
बिहार में चुनाव प्रचार थम गया है. जिस समय आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे, दूसरे चरण की 122 सीटों के लिए झमाझम वोट पड़ रहे होंगे. उसी दिन शाम को एग्जिट पोल के नतीजे भी आने लगेंगे. हालांकि ये परिणाम एग्जैक्ट नहीं होते हैं और कभी-कभी उलट भी जाते हैं, लेकिन समाचारों की सुर्खियां तो बनते ही हैं. असली नतीजे चौदह नवंबर को आयेंगे तब तक कयासों और किंतु-परंतु का दौर चलता रहेगा. पहले चरण में करीब 65 फीसदी मतदान ने चौंकाया है और इसके आधार पर हार जीत का गुणा भाग शुरु हो गया है. लेकिन मतदान प्रतिशत बढ़ने या घटने से न सरकार बदलती है, न बचती है.
पिछले कई चुनावों से यह साबित हो चुका है कि वोट प्रतिशत बढ़ने पर भी सरकारें नहीं बदली हैं और घटने पर भी सरकारें बदली हैं. बहरहाल इस बार बिहार में वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है और दूसरे चरण में भी शायद इसकी पुनरावृत्ति हो तो इसके कारण बहुत स्पष्ट है. इस बार बिहार में गहन मतदाता पुनरीक्षण के क्रम में लगभग 65 से 79 लाख नाम वोटर लिस्ट से कट गये हैं. इसलिए मतदान में थोड़ी भी वृद्धि बड़ी दिखाई दे रही है.
दूसरी बात यह है कि ऊपर से आमने-सामने दिखने वाला यह चुनाव वस्तुतः त्रिकोणीय और चतुष्टकोणीय है. यह कोण बनाया है प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, ओवैसी की पार्टी और निर्दलीय तथा बागियों ने. प्रशांत किशोर ने जिस तरह से ढ़ाई-तीन साल से माहौल गर्म कर रखा है और जिस तरह के उम्मीदवारों को उतारा है, उससे भी मतदान केंद्रों पर भीड़ बढ़ी है. मजबूत बागियों और निर्दलीयों ने भी अपने समर्थकों को मतदान केंद्र तक पहुंचाया है. अपने असर वाले इलाके में ओवैसी भी ऐसा करिश्मा करेंगे और वोट प्रतिशत बढ़ेगा. दूसरी बात यह है कि इस बार छठ मनाने बिहार आए मतदाताओं का एक तबका वोट डालने के बाद ही लौटा है. खबर यह भी आ रही है कि कुछ प्रत्याशियों ने वोट डालने के लिए बाहर से अपने मतदाताओं को खर्चा-पानी देकर भी बुलाया है.
फिलहाल यह साफ नहीं हो पाया है कि पहले चरण में पुरुषों के वोट ज्यादा पड़े हैं या महिलाओं के. एनडीए महिलाओं की पहली पसंद मानी जाती है. युवाओं का अलग से वर्गीकरण नहीं हो पाता है. उनके रूझान का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है. पहले चरण की विशेषता यह रही कि बिना खून-खराबे और गोली चालन के मतदान संपन्न हो गया और एक भी सेंटर पर पुनर्मतदान की नौबत नहीं आयी. हालांकि कहीं-कहीं से तनातनी, हल्की झड़पों और मारपीट की खबरें जरुर आयीं. लेकिन बिहार के लिहाज से यह मामूली बात है. पहले चरण की वोटिंग के आधार पर चुनाव विश्लेषकों और ग्राउंड पर पहुंचे पत्रकारों में से अधिकतर का मानना है कि एनडीए को बढ़त है. यह भी कि जद (यू) भाजपा से आगे निकल सकता है, लेकिन चिराग के हिस्से वाली सीट फंस गयी हैं. कुछ का मानना है कि मुकाबला पिछली बार जैसा ही हुआ है और यदि दूसरे चरण में एनडीए ने अच्छा नहीं किया तो मुकाबला बराबरी पर छूटेगा. ऐसी स्थिति में सरकार बनाने की चाबी छोटे दलों और निर्दलीयों के हाथ में चली जाएगी या फिर राष्ट्रपति शासन लग जाएगा.
इन सबके बावजूद यह साफ हो गया है कि मतदाताओं में नीतीश कुमार के खिलाफ गुस्सा नहीं है. अलबत्ता शिकायतें जरुर हैं और वे स्थानीय स्तर पर हैं. एक खबर यह भी उड़ रही है कि नीतीश के कट्टर समर्थक भाजपा को हराने में लगे हैं. लेकिन ऐसा होता तो जमीन पर जमे भाजपाइयों को इसकी भनक जरुर लगती और समस्या के समाधान का उपाय जरुर खोजा जाता. यह भी कि तब भाजपा के स्टार प्रचारक जद (यू) की सीटों पर रैलियां नहीं करते.
अब लौटते हैं दूसरे चरण के रण की दिलचस्प तस्वीरों की ओर. अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार में मानो इसी चुनाव में यह तय हो जाना है कि मुसलमानों का असली रहनुमा कौन है ? इन इलाकों में कांग्रेस-सपा ने अपने धुरंधर मुस्लिम नेताओं को उतार दिया है. इमरान प्रतापगढ़ी, इकरा हसन, अफजाल अंसारी सीधे ओवैसी पर हमला बोल रहे हैं. पप्पू यादव भी ललकार रहे हैं. तेजस्वी यादव तो ओवैसी को आतंकवादी तक कह रहे हैं. अब ओवैसी भी कहां थमने वाले थे. उन्होंने इन सभी नेताओं को इतना जमकर धोया है कि इनकी हेकड़ी निकल गयी है. इस बीच तेलंगाना के मु्ख्यमंत्री रेवंत रेड्डी का वहां के एक विधानसभा उपचुनाव में दिया गया बयान वायरल हो रहा है. उन्होंने कहा है कि मुसलमान का मतलब ही होता है कांग्रेस. ये दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं. इस बयान से कांग्रेस कितना फायदा उठा पाएगी, यह तो नहीं पता लेकिन उपर्युक्त जिलों की हिंदू बहुल सीटों पर भाजपा-जद (यू) मजे लेकर कांग्रेस की जमीन में मट्ठा डाल रहे हैं. मुस्लिम वोटों की छीना झपटी का ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा गया.
इधर औरंगाबाद, आरा, रोहतास, कैमूर आदि जिलों में इस बार लड़ाई तीखी है. पिछली बार महागंठबंधन ने एनडीए को पीछे धकेल दिया था. कुछ जिलों में तो एनडीए का खाता भी नहीं खुला था. गौरतलब यह है कि इन जिलों के अतिरिक्त सहरसा, भागलपुर, मधुबनी, सुपौल, मोतिहारी, बेतिया आदि में महागंठबंधन पिछड़ता दिख रहा है. जहानाबाद में रोचक तस्वीर यह है कि भूमिहार कहीं महागंठबंधन के साथ है तो कहीं एनडीए के साथ और अन्य जातियां इसी आधार पर अपना समर्थन तय कर रही हैं. नवादा में महागंठबंधन घाटे में रहेगा तो गयाजी में मुकाबला बराबरी पर छूट सकता है.
फिलहाल मुद्दा यही है कि क्या नीतीश जायेंगे और तेजस्वी आयेंगे? इस सवाल का जवाब ढ़ूंढ़ने के लिए हमें अक्टूबर के पहले हफ्ते पर गौर करना होगा. तब ऐसा लग रहा था कि चुनाव तेजस्वी पर केंद्रित होगा और राहुल-तेजस्वी की जोड़ी एनडीए सरकार की नाकामियों को मुद्दा बनाकर टूट पड़ेगी. लेकिन हुआ इसके उलट. राहुल नेपथ्य से गायब हो गये. उनके एजेंडे में बिहार था ही नहीं. पहले उन्होंने वोट चोरी के सवाल पर तेजस्वी को साथ लेकर समय बर्बाद किया, क्योंकि बिहार में कोई इसकी चर्चा तक नहीं कर रहा था. बाद में वह विदेश चले गये. लौटे तो देशाटन में लग गये. सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से गंठबंधन जैसे-तैसे आगे बढ़ा तो मनमसोसकर बिहार आये और कुल जमा तेरह रैलियां की जबकि अति व्यस्त रहते हुए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंद्रह रैलियां की और वह भी बड़ी बड़ी, साथ में एक रोड शो भी. अकेले तेजस्वी ने सवा सौ रैलियों का रिकॉर्ड बनाया तो कमजोर और रिटायर्ड हर्ट समझे जाने वाले नीतीश ने भी 70 रैलियां कर डालीं. उन्होंने तो सड़क मार्ग से सैंकड़ों किमी चलकर रैलियां की जब बारिश के कारण उड़नखटोले जमीन पर थे. उनकी ओर से अमित शाह ने 35 तो योगी आदित्यनाथ ने तीस रैलियां की. इनमें राजनाथ सिंह, हिमंता बिस्वा शर्मा, मोहन यादव, रेखा गुप्ता, देवेंद्र फडनवीस, चिराग पासवान और अन्य सहयोगियों की रैलियां जोड़ दी जायें तो हर विधानसभा क्षेत्र में एनडीए की धमक रही.
पहले चरण में ही मुकेश सहनी भी तेजस्वी से बिदक गये. यानी चुनाव प्रचार में एनडीए बहुत भारी पड़ा. लेकिन तेजस्वी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया जंगलराज के केंद्रीय विमर्श में आ जाने से. एनडीए के सभी प्रचारकों ने इसे केंद्र में रखकर ही गंठबंधन पर हमला बोला. इससे तेजस्वी के प्रचार की धार कुंद हो गयी. वह पिछली बार की तरह जनता से कनेक्ट नहीं कर पाये जबकि वह बहुत संभलकर चल रहे थे. बीच चुनाव में जननायक कहलाने बनने के शौक ने भी उन्हें नुकसान पहुंचाया होगा. पता नहीं राहुल बिहार जीतना भी चाहते थे या नहीं और यह सवाल गंठबंधन के लिए यक्ष प्रश्न रहा जिसे तेजस्वी सुलझा नहीं पाये.
दरअसल महागठबंधन का चुनाव प्रचार केंद्रीकृत था. जबकि एनडीए का विकेंद्रित. एक तरफ बिखराव था तो दूसरी तरफ एकरूपता. राजनीति में टाइमिंग का खास महत्व होता है. तेजस्वी इसे समझने में चूक गये. उनके पास मौका था, लेकिन लगता है वह हाथ से फिसल गया है. इसलिए धूम फिर कर सवाल यही रह जाता है कि क्या नीतीश कुमार फिर अविजित रह जायेंगे? अगर नीतीश हारते हैं तो इसका पूरा श्रेय तेजस्वी को ही जाएगा. वह सिर्फ अपने बूते नया इतिहास लिखेंगे.

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