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क्या सोनिया-राहुल कांग्रेस के संभावित बिखराव को रोक पाएंगे !

      Faisal Anurag क्या सोनिया गांधी या राहुल गांधी साहस के साथ कांग्रेस को वर्तमान गहराते संकट से बाहर निकाल सकते हैं या फिर कांग्रेस की तबाही का कारण बन जाएंगे? कांग्रेस के वर्तमान आलाकमान को जहां राज्यों से चुनौती मिल रही हैं वहीं कल तक 10 जनपथ के करीबी वरिष्ठ नेताओं के बोल बता रहे हैं कि वे अपनी ताकत का प्रदर्शन करने को तैयार हैं. हालांकि ऐसी स्थिति कोई पहली बार पैदा नहीं हुई है. मुसीबतों से निपटने और कांग्रेस को नवजीवन देने का साहस चीन से हार के बाद जवाहरलाल नेहरू और ``गुंगी गुड़िया`` मान ली गयी इंदिरा गांधी ने वरिष्ठतम नेताओं को दरकिनार करने में दिखाया वह कांग्रेस के इतिहास में दर्ज है. कांग्रेस को नया तेवर और नया रूप देने के लिए अतीत से सबक हासिल करने की जरूरत आलाकमान को है. चुप्पी न तो कांग्रेस को बचा सकेगी और न ही मोदीराज के खिलाफ किसी निर्णायक संघर्ष को तेवर दे पाएगी. 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद जवाहर नेहरू पर चारों ओर से राजनैतिक हमले किए गए. इस का एक बड़ा कारण तो 1962 का लोकसभा चुनाव भी था, जब नेहरू की कांग्रेस को 1952 और 1957 की तुलना में सीटें कम मिली और वोट प्रतिशत भी घटा. तब लोकसभा के 494 सीट ही होते थे. इसमें नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने 361 सीटें जीती और उसे 44.7 प्रतिशत वोट मिले. तब कांग्रेस एक लोकतांत्रिक मंच होता था और विचारों की असहमति का सम्मान नेहरू खुद करते थे. 1963 में कांग्रेस के संगठन को मजबूत बनाने के लिए तत्कालीन मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री के. कामराज ने एक योजना पेश की. इस योजना के तहत छह राज्यों के दिग्गज मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देकर पार्टी को मजबूत करने का दायित्व मिला. केंद्रीय मंत्रीमंडल से भी कई सीनियर नेताओं को भी इस्तीफा देना पड़ा. जिन नेताओं ने इस्तीफे दिये उनमें मोरारजी भाई देसाई और बिजू पटनायक जैसे ताकतवर मुख्यमंत्री भी शामिल थे. इनके अलावे लालबहादुर शास्त्री और एस.के पाटिल से भी इस्तीफा लिया गया. इस योजना के बाद कामराज कांग्रेस में बेहद ताकतवर नेता के रूप में उभरे और नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री और फिर उनके निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया. तब इंदिरा गांधी को ``गुंगी गुड़िया`` कहा जाता था और समझा गया था कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उनके माध्यम से अपनी सत्ता चलाएंगे. आज के कांग्रेस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की स्थिति 1967 वाली इंदिरा गांधी की तरह दिख रही है. न तो राज्यों के विवाद सुलझ रहे हैं न ही पार्टी छोड़ने वालों का तांता रूक रहा है और न ही असंतुष्टों के सवालों का जबाव दिया जा रहा है. ऐसी ही हालत ने इंदिरा गांधी को भी निपटना पड़ा था और गुंगी गुड़िया की छवि को तोड़ कर कांग्रेस को एक नया जीवन देना पड़ा था. इंदिरा गांधी ने दो स्तरों पर नेतृत्व की चुनौतियों का सामना किया. पहला वैचारिक और दूसरा सांगठनिक. वैचारिक स्तर पर इंदिरा गांधी ने सामाजवादी रूझान लिया. उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण,प्रीवीपर्स का खात्मा और गरीबी उन्मूल के धरातल से दिग्गज कांग्रंसियों को सिंडिकेट साबित किया. बाद में कामराज सहित सभी बड़े नेताओं को नकारते हुए पार्टी का विभाजन कर दिया. सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने डा. मनमोहन सिंह के साथ मिल कर कल्याणकारी योजनाओं को अंजाम दिया. एक तरह से यह 1991 की उदारवादी नीतियों के साथ आमलोंगों के कल्याण का उनका तरीका था. लेकिन 2012 से ही कांग्रेस के भीतर और बाहर उथलपुथल का दौर शुरू हुआ जो आज एक तरह से कांग्रेस के भविष्य और अस्तित्व पर सवाल उठा रहे हैं. क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी चुप्पी तोड़ कर कांग्रेस के संगठन और विचार को गति देने की क्षमता रखते हैं ? इसी सवाल के उत्तर में अंतरनिहित है कि फीनक्सि की तरह कांग्रेस फिर से खड़ी होगी या हाशिए की पर चली जाएगी. [wpse_comments_template]

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