Faisal Anurag
“हमारी पीढ़ियां 700 शहीद किसानों की कुर्बानी को याद रखेंगी. हम जब भी वोट डालने जाएंगे, हमारे जहन में आंदोलन रहेगा कि किस तरह भाजपा ने किसानों पर अत्याचार किया.” यह टिप्पणी कृषि कानूनों की वापसी के एलान के तुरंत बाद पत्रकार शिवांगी सक्सेना से सिंधु बॉर्डर पर एक किसान रणजीत सिंह ने की है. जाहिर है कि किसानों के दिलों दिमाग पर अपने शहीद किसानों की स्मृति गहरायी के साथ बैठी हुई है. प्रधानमंत्री के संबोधन से ही यह स्पष्ट हो गया कि उनकी नजर में कृषि कानून को लेकर उनके नजरिए में किसी तरह का बदलाव नहीं आया. यह पूरा एकतरफा फैसला चुनावी मकसद के लिए किया गया है. लेकिन 360 दिनों तक ठिठुरा देने वाली शतलहरी, मूसलाधार बारिश और गर्मियों की लू का सामना करने वाले किसानों ने न केवल कृषि कानूनों को वापस करवाया है बल्कि इस बीच अपनी राजनीतिक विकास का एक बड़ा मैदान भी फतह किया है. किसानों ने यह तो सीख हासिल कर ही लिया है कि सांप्रदायिक सद्भाव और भईचारा ही वह ताकत है. जिससे बरकारार रख किसानों की एकता, कृषि संस्कृति और जमीन की मिल्कियत की रक्षा की जा सकती है.
किसानों की प्रतिक्रिया बता रही है कि प्रधानमंत्री के एलान के बावजूद अपने संतुलन को बनाए हुए हैं और उनके मकसद में एमएसपी के लिए कानून ,बिजली बिलों की वापसी और श्रम कानूनों के रद्द किया जाना शामिल हैं. आम किसान हों या किसान नेता सभी वापसी के एलान के बाद यही कहते नजर आ रहे हैं. इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण राजनीतिक स्थिति यह भी बनी है कि प्रधानमंत्री के एलान के और उनकी घर वापसी की अपील के बावजूद किसानों ने अति उत्साह का न तो परिचय दिया है और न ही अपने गांव-घर जाने के लिए उतावलापन दिखाया है. किसान संसद से कानून की वापसी की प्रक्रिया पूरी किए जाने तक दिल्ली की सरहदों पर डटे रहने का संकल्प जाता दिया हैं. इसका मतलब साफ है कि प्रधानमंत्री के एलान के बावजूद किसानों को भरोसा नहीं जीता जा सका है और किसानों का यह अविश्वास वास्तव में उनके एक साल के संघर्ष से ऊपजे त्याग और साहस का ही परिणाम है.
किसान आंदोलन ने देश को यह दिखाया है कि यदि दृढ़ता के साथ आंदोलन की नैतिकता, उद्देश्य और संकल्प हो तो किसी भी सरकारी अहंकार और एकाधिकारवादी तानाशाही को भी झुकने पर बाध्य किया जा सकता है. किसान आंदोलन गांधी के चंपारण किसान आंदोलन की विरासत का आजाद भारत में कामयाब प्रयोग है. महात्मा गांधी ने 1944 में अपने एक सहयोगी एनजी रंगा को कहा था” अगर विधायिका खुद को किसानों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ साबित करती है तो निश्चित रूप से उनके पास सविनय अवज्ञा और असहयोग का सार्वभौमिक उपाय होगा।” आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसानों ने अपने इसी उपाय का उपयोग करते हुए नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार के मिथ को तार-तार कर दिया है.
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में प्रधानमंत्री के इस फैसले से भाजपा को कितना चुनावी लाभ मिलेगा राजनीतिक प्रेक्षकों की राय इस पर बंटी हुई है. जहां तक भारतीय किसानों के मनोविज्ञान और सांस्कृतिक समझ का सवाल है वह भी बहुत कुछ भविष्य की ओर इशारा कर रहा है. किसानों के लिए इतना आसान नहीं होगा कि वे एक साल में उन पर किए गए सरकारी अत्याचार को भूल जाएं. यही नहीं लखिमपुरखिरी के जनसंहार के लिए जिस गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र के इस्तीफे की मांग किसान करते रहे हैं वे अपने पद पर बरकार हैं. किसानों का यह आंदोलन सिर्फ कृषि कानूनों की वापसी के भर के लिए नहीं था.
न्यूनतम साझा मूल्य की कानूनी गारंटी की राह की बाधाएं अब भी खड़ी हैं. सरकार समर्थक अनेक कृषि विशेषज्ञ तो सुधारों की राह में इस वापसी के एलान को एक बाधा की तरह बताने की कोशिश में हैं. आर्थिक सुधारों के नाम पर जिस तरह बड़े कारपारेट के हितों की रक्षा की जाती है और उनके मुनाफे के दरवाजे बेरोकटोक खोल दिए जाने की प्रवृति है. उसकी सबसे बड़ी कीमत तो मजूदरों और किसानों को ही चुकाना पड़ता है. किसान आंदोलन में ज्यादातर कम जोत वाले किसान ही शामिल थे. और शहादत देने वालों में भी उनकी ही संख्या ज्यादा है. कमजोत वाली खेती के साथ भारत का पूरा कृषि जगत एक बड़े तनाव और संकट के दौर से गुजर रहा है. इसके साथ ही खेतीहर मजदूरों का सवाल भी गंभीर है. भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसमें असंगठित क्षेत्र लगातार सिमट रहा है जब कि असंगठित क्षेत्र में श्रम बल बढ़ रहा है. खेतीहर मजदूरों का सवाल भी जल्द हल किए जाने की जरूरत है.
किसान आंदोलन ने कृषि संकट के साथ ही भारत के आर्थिक सुधारों के अंतविरोध को भी उजागर कर दिया है. आने वाले दिनों में इसकी गूंज भी सुनायी देगी. केवल चुनावी हार जीत में केंद्र सरकार जब तक उलझी रहेगी ये सवाल हल नहीं हो सकते हैं. 2015 में नरेंद्र मोदी ने जब भूमि सुधार कानून को खत्म करने का कानून लाया था तब उसका भारी विरोध हुआ. राज्यसभा में बहुमत नहीं रहने के कारण उस प्रयास को स्वत: मरने दिया गया. लेकिन नरेंद्र मोदी ने राज्यों के सहारे भूमि सुधार के कानूनों में कॉरपारेट हित के लिए कानून बना कर रास्ता साफ कर दिया है. भारत की कृषि पर जिस तरह देशी-विदेशी कंपनियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है. आर्थिक सुधारों के पैरोकार भी केंद्र पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है. किसान भी इसे गहरायी से समझ रहे हैं. इसका साफ मतलब है कि किसानों ने एक मार्चा जरूर फतह किया है लेकिन निर्णायक जीत अभी शेष है.
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