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क्या प्रचार युद्ध से किसान आंदोलन को थाम पायेगी मोदी सरकार ?

Faisal Anurag प्रचार युद्ध के सहारे किसानों के आंदोलन को अलग थलग करने के अभियान में मोदी सरकार लग गयी है. एक ओर किसानों को बार-बार पत्र लिखकर बातचीत के लिए दबाव बनाने का प्रयास कर रही है. बावजूद इसके किसान आंदोलन का असर तेज होता जा रहा है. केंद्र सरकार के किसान सम्मेलनों में शामिल किसान भी तीनों कानूनों को लेकर संशय में हैं. सरकार पर भरोसा हर दिन कम होता जा रहा है. केंद्र के वार्ता आमंत्रण पत्र को खारिज किये जाने के बाद एक बार फिर केंद्र ने किसानों पत्र लिखकर आमंत्रित किया है. किसान दृढ हैं और व टस से मस होने को तैयार नही हैं. उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार ठोस प्रस्ताव लेकर आये और बताये कि तीनों कानून रद्द करने के लिए वह तैयार है या नहीं. प्रधानमंत्री सहित केंद्र के तमाम मंत्री किसानों पर खर्च किये गये 95 हजार करोड़ की दुहाई दे रहे हैं. बावजूद इसके किसानों के समर्थक के रूप में प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी का असर कम ही हुआ है. किसान सम्मान योजना को लेकर किसानों में तीखी प्रतिक्रिया है. न्यूनतम साझा कार्यक्रम को जारी रखने के प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों दावे के बावजूद किसान चाहते हैं कि एमएसपी को कानूनी मान्यता दी जाये और एमएसपी से कम पर खरीद करने वालों के लिए सजा का प्रावधान किया जाये. छह सालों के नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उनकी आर्थिक नीति को लेकर पहली बार भारत आंदोलित है. पंजाब और हरियाणा की सीमाओं का अतिक्रमण कर किसानों का आंदोलन देश के दूसरे राज्यों में विस्तारित हो चुका है. यूपी और महाराष्ट्र के किसानों का दिल्ली कूच जारी है. दक्षिण के राज्यों में भी किसानों का आंदोलन असर दिखाने लगा है. मीडिया आंदोलनों को दिखाने के बजाय सरकार के प्रचारयुद्ध का हिस्सा बनकर आंदोलन के घटनाक्रम को नहीं दिखा रहा है. किसानों के इस आरोप को खारिज नहीं किया जा सकता है. अमरीका के सात सांसदों ने अमेरिका के विदेश मंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि अमेरिका किसान आंदोलन के संदर्भ में भारत से बात करें. इसके पहले ब्रिटेन के संसद में किसान आंदोलन की चर्चा हो चुकी है. किसानों के समर्थन में दुनियाभर के तीन दर्जन शहरों में प्रदर्शन हो चुके हैं. भारत का विदेश मंत्रालय केंद्र के नजरिये को दोहरा रहा है, लेकिन अमेरिका सांसदों के पत्र का कूटनीतिक महत्व है. ऐसा कम ही देखा गया है, जब किन्हीं आंदोलनों को लेकर दुनिया के अनेक देशों में राजनैतिक तौर पर हलचल देख गयी हो. हांगकांग के लोकतंत्र आंदोलन जैसे कम ही आंदोलन हैं, जिस पर पश्चिम सहानुभूति का रूख रखता हो. किसान आंदोलन ने जिस तरह आर्थिक तंत्र पर कॉरपोरेट के बढ़ते प्रभाव को बेनकाब किया है, उससे देश-विदेश के कॉरपोरेट घराने भी अछूते नहीं हैं. खासकर अडाणी अंबानी के प्रोजेक्ट के बहिष्कार का असर भी दिखने लगा है. हरियाणा में जियो के बिजली टावर तोड़े गये हैं. राज्य सरकार किसानों के इस अभियान को रोक नहीं पा रही है. जियो ने इसपर कोई प्रकिक्रिया तो व्यक्त नहीं की है, लेकिन उसे पता है कि इसका गहरा अर्थ है. औद्योगिक क्षेत्रों के निजीकरण की प्रतिक्रिया उतना गहरा असर नहीं कर पाया, जितना कि किसानों का आंदोलन कर रहा है. किसानों को समझाने के लिए भाजपा और केंद्र की रणनीति उस आर्थिक मदद पर फोकस है, जिसे लेकर किसानों में ही कई तरह के सवाल हैं. किसान नेताओं के साथ बातचीत के लिए जिस तरह का लचर रूख केंद्र दिखा रहा है, उससे जाहिर है कि वह कानूनों में कोई बड़ा संशोधन के लिए भी तैयार नहीं है. किसान नेताओं ने आशंका प्रकट किया है कि केंद्र नहीं चाहता कि एमएसपी जैसे सवाल पर भी किसान आंदोलन की मांग को स्वीकार किया जाये. यदि सच में एमएसपी को बनाये रखने के लिए केंद्र प्रतिबद्ध है, तो वह कानून सम्मत बनाने से पीछे क्यों हट रही है. किसान नेताओं की आशंका यह है कि तीनों कानून जिस तरह के सुधार की बात कर रहे हैं, उसमें एमएसपी का खत्म होना तय ही है. इसका एक कारण तो यही है कि निजी घराने अपनी शर्त और मूल्यों पर ही खरीद करेंगे और केंद्र की ओर से उनकी ही राह को सुगम करने का प्रयास तीनों कानून हैं.

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