क्या अनसुनी ही रह जाएगी किसानों के हक की आवाज?
मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है क्या मेरे हक में फैसला देगा!! (डॉ पुरूषोत्तम अग्रवाल का ट्वीट) क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूं मैं जानता हूं जो वो लिखेंगे जवाब में (डॉ देवेद्र शर्मा का ट्वीट) Faisal Anurag सोशल मीडिया पर इसी तरह के शेर सुप्रीम कोर्ट गठित कमिटी पर बड़े पैमाने पर किये जा रहे हैं. चार सदस्यीय कमिटी को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई है. जाहिर है सुप्रीम कोर्ट का फैसला लोगों की आलोचना का केंद्र बना हुआ है. प्रताप भानु मेहता जैसे विशेषज्ञ अपने लेख लिखकर फैसले को टेरिबुल कंस्टिट्ट्यूसनल प्रेसिडेंट बताया है. अनेक राजनीति दलों ने भी समिति के सदस्यों को लेकर निष्पक्षता का सवाल उठाया है. सीपीआई माले ने अपने प्रेस बयान में कानूनों को किसी भी अदालत की ओर से स्थगित करने, या उन पर अस्थायी रोक लगाने के लिए जरूरी होता कि अदालत पाये कि वह कानून संविधान सम्मत नहीं है और अपने आदेश में ऐसा पाने के लिए अपने कारण स्पष्ट करें. कृषि कानून संविधान सम्मत हैं या नहीं, इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कुछ नहीं कहा. और इसलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन कानूनों के स्थगन का आदेश आन्दोलनकारी किसानों और भारत की जनता के लिए भरोसेमंद नहीं लगता. इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर होता है कि असंतोष गहराया है. किसानों ने तो स्प्ष्ट कर दिया है कि वे न तो कमेटी के सामने जायेंगें और न ही घर वापस जा रहे हैं. किसान नेताओं ने यह भी कहा है कि आंदोलन करने के हक को स्वीकार करने के लिए वे सर्वोच्च अदालत के शुक्रगुजार हैं. बावजूद इसके न तो बुजुर्ग या महिलाएं आंदोलन स्थल से घर वापस होंगी और न ही कानूनों को निरस्त करने की मांग से वे पीछे हटेंगे. संयुक्त किसान मोर्चा ने जारी प्रेस नोट में कहा है: हम एक बात फिर स्पष्ट करते हैं कि संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा घोषित आंदोलन के कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं है. हमारे सभी पूर्व घोषित कार्यक्रम यानी 13 जनवरी लोहड़ी पर तीनों कानूनों को जलाने का कार्यक्रम, 18 जनवरी को महिला किसान दिवस मनाने, 20 जनवरी को श्री गुरु गोविंद सिंह की याद में शपथ लेने और 23 जनवरी को आज़ाद हिंद किसान दिवस पर देश भर में राजभवन का घेराव करने का कार्यक्रम जारी रहेगा. गणतंत्र दिवस 26 जनवरी के दिन देशभर के किसान दिल्ली पहुंचकर शांतिपूर्ण तरीके से किसान गणतंत्र परेड आयोजित करे, गणतंत्र का गौरव बढ़ाएंगे. इसके साथ अडानी अंबानी के उत्पादों का बहिष्कार करने और भाजपा के समर्थक दलों पर दबाव डालने के हमारे कार्यक्रम बदस्तूर जारी रहेंगे. तीनों किसान विरोधी कानूनों को रद्द करवाने और एमएसपी की कानूनी गारंटी हासिल करने के लिए किसानों का शांति पूर्वक एवं लोकतांत्रिक संघर्ष जारी रहेगा. किसानों का रूख स्पष्ट है. आंदोलन के शुरूआती दौर से ही वे एक ही बात कर रहे हैं. कानूनों को रद्द करो. अब तक केंद्र सरकार के साथ हुए वार्तालाप में भी उनकी एक सूत्री यही मांग रही है. प्रो. मेहता ने एक तल्ख लेख इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है. प्रो मेहता ने लिखा है कृषि कानूनों की समस्यायें जटिल हैं. लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पक्ष में हैं. आपको अब इस बात की चिंता करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट अपने कार्य की व्याख्या कैसे कर रहा है. न्यायालय अनजाने में लेकिन हानिकारक कदम उठा रहा है और एक सामाजिक आंदोलन की गति को तोड़ रहा है. याचिकाओं पर पहली सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने निष्प्क्ष समिति का गठन करने की बात कही थी और पी साइनाथ के नाम का उल्लेख किया था. कोर्ट ने कहा था कमिटी में साइनाथ जैसे लोग रहेंगे. लेकिन जिन चार सदस्यों को कोर्ट ने सदस्य बनाया है वे चारों ही कृषि कानूनों के समर्थक हैं. अशोक गुलाटी तो उन लोगों में शामिल हैं, जिनकी भूमिका कानून को अंमित रूप देने वालो में हैं. शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनावत उन लोगों में हैं, जो खेती में कॉरपोरेट के लिए दरवाजे खोलने की वकालत करते रहे है. दो अन्य सदस्य भी समर्थक हैं. समर्थकों से लैस समिति को लेकर जो आशंकायें व्यक्त की जा रही हैं, उन्हें आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता है. हालांकि बीबीसी को अनिल घनावत ने कहा है कि समिति किसानों के साथ न्याय करेगी. लेकिन उनकी बातों पर भरोसा किसानों में पैदा नहीं हो रहा है. हालात ऐसे बन गये हैं कि किसानों और केंद्र सरकार के बीच बना भरोसे का संकट अब समिति को लेकर भी गहरा गया है. किसान नेता किसी भी तरह के ऐसे जाल में नहीं फंसना चाहते हैं, जो उनकी मांगों की दिशा को प्रभावित करे. सवाल उठ रहा है कि इतने सारे विवाद के बाद समिति में शामिल सदस्य नैतिकता की आवाज सुन कर खुद को अलग करेंगे या सर्वोच्च अदालत भरोसे और साख की बहाली के लिए समिति के सदस्यों पर पुनर्विचार कर संतुलन पैदा करेगा.

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