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क्या श्रमिकों का राष्ट्रीय आंदोलन निजीकरण की आंधी रोक सकने में सक्षम साबित हो सकेगा !

Faisal Anurag एक साल तक किसानों ने दिल्ली को घेरा,चुनावों के कारण तीनों कृषि कानून जरूर वापस हुए लेकिन प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया कि तीनों कानून खेती और किसानों की मजबूती के लिए थे. यानी कृषि कानूनों की वापसी नीतियों में किसी बदलाव के संकेत नहीं साबित हुयी. किसानों ने असमानता बढ़ा रही आर्थिक नीतियों का विरोध किया, बावजूद इसके किसानों के प्रभाव वाले इलाकों में भारतीय जनता पार्टी का विजय अभियान नहीं रूका. अब देश भर के श्रमिक दो दिनों की हड़ताल पर हैं. श्रमिक और बैंककर्मी उन कानूनों को वापस लेने की बात कर रहे हैं जिसे नरेंद्र मोदी सरकार अपना फ्लैगशिप मानती है. तो फिर कोई चार दशकों बाद हो रही इतनी बड़ी श्रमिक हड़ताल क्या असर दिखा सकेगी ! यह सवाल इसलिए महत्वूपर्ण है क्योंकि चुनावों में हराने की कूबत रखने वाले समूहों की बात सरकारें सुनती आयी हैं. पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद तो नरेंद्र मोदी सरकार निजीकरण की नीति को ज्यादा तेज करने के मूड में नजर आ रही है, क्योंकि किसान या श्रमिकों के प्रतिरोधों के बावजूद नरेंद्र मोदी चुनावों में लगतार जीत रहे हैं, केवल बंगाल और दक्षिण के दो राज्यों को छोड़ कर. वह जमाना तो कब का जा चुका है जब श्रमिकों की हड़ताल मध्यवर्ग, नीति निर्माताओं को सरकार की नीतियों को झकझोर देते थे. दत्ता सामंत के टेक्स्टाइल हड़ताल ने आखिरी बार ऐसा 1980 के दशक में अंजाम दिया था. इस बार लगभग हर सेक्टर के श्रमिक और कर्मचारी सरकार के पब्लिक सेक्टर के निजीकरण करने और बैंकिंग कानून सुधार विधेयक 2021 के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. श्रमिक संगठनों की इस पर सहमति है कि भाजपा सरकार कानूनों में संशोधन अपने पूंजीपति आकाओं को रिझाने के लिए कर रही है. पूंजीपतियों को दिए गए कर्ज़ में माफी, टैक्स में भारी छूट और जल-जंगल-ज़मीन की मनमानी लूट की छूट देने पर आमादा है. ‌विदेशी और देशी निजी पूंजी को निवेश करने के लिए प्रेरित करने में पिछले लगभग 8 सालों के अपने कार्यकाल में पूरी तरह से विफल रही है इसी के लिए नए कानून बना कर निवेशकों को रिझाने का उपक्रम जोरशोर से जारी है. पूंजी को आकर्षित करने के लिए श्रम शक्ति के अधिकारों के कटौती और उसे कमजोर करने की नीति चल रही है. [wpse_comments_template] सरकारी उपक्रमों जैसे कि भारतीय बीमा निगम आदि में विनिवेश की तैयारी चल रही है या फिर उन्हें निजी कंपनियों को औने-पौने दाम पर बेचे जाने की तैयारी है. केंद्रीय कैबिनेट ने इसे स्वीकृति भी दे दी है. रेलवे स्टेशन, हवाईअड्डे, बंदरगाह समेत बैंक आदि का लगातार निजीकरण हो रहा है. जिन पूंजीपतियों को सरकार सार्वजनिक संपदा बेच रही है वे सरकारी बैंक के कर्ज़दार हैं. राजनैतिक दबाव में इन पूंजीपतियों का कर्ज़ माफ करने के कारण सरकारी बैंक दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए हैं. इस हड़ताल के मुख्य स्वर यही हैं. संसद का सत्र जारी है और देश भर में श्रमिक हड़ताल के बावजूद वह जिस तरह खामोश है उससे जाहिर है कि सत्ता की होड़ कर रहे दलों को भी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों से सहमति है. डॉ.मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में जिस ग्लोबलाइजेशन को स्वीकृति दी थी वह 2022 में तेज गति से सफर के लिए तत्पर है. ऐसे हालात में श्रमिकों या किसानों के लिए ज्यादा रास्ता शेष नहीं है. तो क्या किसानों और श्रमिकों को चुप्पी साध लेना चाहिए और केद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन नहीं करना चाहिए जैसा कि सरकार समर्थक बुद्धिजीवी और नीतिनिर्माता कहते रहे हैं. लेकिन वह भूल जाते हैं कि आने वाले दिनों में चुनावों को भले ही ये आंदोलन प्रभावित नहीं कर सके, लेकिन उनकी गति कम होने नहीं जा रही है.यह हड़ताल एक तरह की चेतावनी है जिसे पांच राज्यों के चुनावों परिणाम के बावजूद सरकार को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. श्रमिक समूहों के निजीकरण के बाजपेयी सरकार की नीतियों के खिलाफ 2004 में उन्हें सत्ता से बेदखल किया था. किसान आंदोलन से सबक लेकर श्रमिकों को इस हड़ताल के राजनैतिक फलाफल के लिए भी सजग होने की जरूरत की अनदेखी नहीं की जा सकती.

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