- फरवरी 2025 में उत्तर प्रदेश के झांसी में 35 वर्षीय निजी बैंक कर्मचारी योगेश दीक्षित ने काम से संबंधित तनाव के कारण ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली.
- जनवरी 2025 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार 2 से 9 जनवरी के बीच चार बैंक (SBI, केनरा बैंक और बैंक ऑफ इंडिया) के कर्मचारियों ने आत्महत्या कर ली.
- पिछले 10 वर्षों में भारत में करीब 500 बैंक कर्मचारियों ने काम से संबंधित तनाव के कारण आत्महत्या की. 5 वर्षों (2020-2025) में 100 से अधिक मामले दर्ज किए गए.
पुणे जिले के बारामती में बैंक ऑफ बड़ौदा के चीफ मैनेजर शिवशंकर मित्रा (52 वर्ष) ने 17 जुलाई 2025 को देर रात बैंक परिसर में ही फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. पुलिस और विभिन्न समाचार स्रोतों के अनुसार, इस घटना का कारण काम का अत्यधिक दबाव था, जिसका उल्लेख मित्रा ने अपने सुसाइड नोट में किया. उन्होंने 11 जुलाई 2025 को स्वास्थ्य कारणों और काम का दबाव का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया था और उस समय अपनी 90 दिनों की नोटिस अवधि में थे.
सुसाइड नोट की बातें
- उन्होंने अपनी आत्महत्या का कारण बैंक में काम का अत्यधिक दबाव बताया.
- सुसाइड नोट में उन्होंने बैंक प्रबंधन से अनुरोध किया कि कर्मचारियों पर अनावश्यक दबाव न डाला जाए, क्योंकि सभी कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं और पूरी मेहनत से काम करते हैं.
- अपनी पत्नी और बेटी से आत्महत्या के लिए माफी मांगी और अपनी आंखें दान करने की इच्छा व्यक्त की.
- सुसाइड नोट में किसी भी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया और यह स्पष्ट किया कि उनके परिवार का इस निर्णय से कोई लेना-देना नहीं है.
शिवशंकर मित्रा सुसाइड की कहानी
बारामती शहर की भिगवण रोड पर स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा की शाखा, जहां हमेशा ग्राहकों की भीड़ होती थी. कर्मचारी हमेशा ही व्यस्त रहते थे. 17 जुलाई 2025 की रात वहीं बैंक परिसर एक अजीब सी खामोशी में डूबी थी. जब पूणे शहर के लोग सो रहे थे और बैंक के चीफ मैनेजर शिवशंकर मित्रा अपने केबिन में अकेले बैठे थे. उनके चेहरे पर थकान थी, आंखों में अनकही पीड़ा और मन में एक बोझ जो शायद अब और सहन नहीं हो रहा था.
शिवशंकर मित्रा, मूल रूप से उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के रहने वाले थे. उनके साथ काम करने वाले सहयोगियों के मुताबिक वह एक मेहनती और जिम्मेदार अधिकारी थे. उनकी जिंदगी बैंक की चार दीवारों और अंतहीन लक्ष्यों के बीच ही सिमटी रहती थी. 52 साल की उम्र तक उन्होंने अपने परिवार, पत्नी और बेटी, के लिए एक बेहतर भविष्य की उम्मीद में दिन-रात मेहनत करते थे. लेकिन हाल के महीनों में, बैंक में बढ़ते काम और हर वक्त चलने वाले अनगिनत अभियानों ने उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़ दिया था. और वह इन सबसे मुक्ति चाह रहे थे.
9 दिन पहले 11 जुलाई को शिवशंकर ने हिम्मत जुटाकर बैंक प्रबंधन को अपना इस्तीफा भेज दिया. इस्तीफे के सिलसिले में लिखे गए पत्र में उन्होंने लिखा- "मैं अपने स्वास्थ्य और काम के अत्यधिक दबाव के कारण यह नौकरी छोड़ रहा हूं." लेकिन 90 दिनों की नोटिस अवधि ने उन्हें और बंधन में जकड़ लिया. हर दिन वही दबाव, वही लक्ष्य, और वही तनाव. उस रात, जब बैंक के कर्मचारी और चौकीदार अपने घर लौट गए, शिवशंकर ने सबसे कहा- "आप लोग जाइए, मैं ब्रांच बंद कर दूंगा.
रात के करीब 10 बजे शिवशंकर मित्रा ने एक रस्सी मंगवाई और अपने केबिन में चुपके से उसे छत के पंखे से बांध दिया. बैंक में लगे सीसीटीवी कैमरों ने उस पल को कैद किया है, जब उन्होंने अपनी जिंदगी के खत्म करने का अंतिम फैसला लिया.
जब देर रात तक वह घर नहीं पहुंचे, उनकी पत्नी चिंतित होकर बैंक पहुंची. बैंक के भीतर की लाईटें चल रही थी, लेकिन आवाज लगाने पर भीतर से कोई आवाज नहीं मिला. बैंक के कर्मचारियों ने दरवाजा खोला तो वह दृश्य देखकर सभी स्तब्ध रह गए. शिवशंकर मित्रा का शव पंखे से लटके हुए थे.
शिवशंकर मित्रा के ट्राउजर की जेब से एक सुसाइड नोट मिला. उसमें लिखा था- "मैं, शिवशंकर मित्रा, बैंक ऑफ बड़ौदा, बारामती शाखा का चीफ मैनेजर, आज बैंक के अत्यधिक कार्य दबाव के कारण अपनी जिंदगी खत्म कर रहा हूं. मेरी बैंक से विनती है कि कर्मचारियों पर अनावश्यक दबाव न डाला जाए. सभी कर्मचारी अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं और अपना 100% देते हैं. मेरी पत्नी और बेटी से माफी मांगता हूं. कृपया मेरी आंखें दान कर दें."
इस घटना ने न केवल बारामती, बल्कि पूरे बैंकिंग समुदाय को झकझोर कर रख दिया है. सोशल मीडिया पर #5DayBanking ट्रेंड करने लगा. लोग काम (वर्क), जीवन संतुलन और कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य पर सवाल उठाने लगे हैं. ऑल इंडिया बैंक ऑफ बड़ौदा ऑफिसर्स एसोसिएशन ने इस घटना को गंभीरता से लेते हुए बैंक प्रबंधन से कर्मचारियों के कार्यभार और मानसिक स्वास्थ्य सहायता के लिए बनी सिस्टम की समीक्षा करने की मांग की.
शिवशंकर की कहानी एक चेतावनी है. एक अनकही दास्तान जो बताती है कि सफलता और मेहनत के पीछे कई बार ऐसी पीड़ा छिपी होती है, जिसे हम नजरअंदाज कर देते हैं. उनकी आंखें भले ही दान हो जाएं, लेकिन क्या हम उनकी उस अंतिम अपील को सुन पाएंगे? क्या हम एक ऐसी व्यवस्था बना पाएंगे जहां काम के साथ-साथ इंसान की जिंदगी को भी महत्व दिया जाए? यह सवाल अब हम सबके सामने है.