Faisal Anurag
क्या बंगाल हिंसा और बदले की राजनीति से मुक्त हो सकेगा? चुनाव बाद हुई हिंसा ने एक बार फिर इस सवाल को महत्वपूर्ण बना दिया है. शपथ लेने के तुरंत बाद ममता बनर्जी ने कहा है कि किसी भी हाल में राजनीतिक हिंसा को बर्दाश्त नहीं करेंगी. लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि इस बार हिंसा उन ज्यादातर इलाकों में ही हुई है जिसमें भाजपा को जीत मिली है. हालांकि अब यह तथ्य आ चुका है कि हिंसा एकतरफा नहीं हुई है. इसमें यदि भाजपा के समर्थक मरे हैं तो तृणमूल कांग्रेस के भी समर्थक शामिल हैं. हालांकि हिंसा ने भारतीय जनता पार्टी को निराशा से बाहर आने का अवसर दे दिया है और उसने देश भर में हिंसा के खिलाफ कार्यक्रम किए हैं. इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि ममता बनर्जी का तीसरा कार्यकाल बेहद चुनौतीपूर्ण होने जा रहा है, क्योंकि बंगाल की राजनीति में एक ऐसी धारा प्रभावी है जो भद्रजन की राजनीति के मापदंडों पर भरोसा नहीं करती है.
भाजपा ने बड़ी छलांग जरूर लगाया है लेकिन बंगाल की विधानसभा में पहले भी वामफ्रंट और कांग्रेस के लगभग उतने ही विधायक विपक्ष में थे जिने भाजपा के हैं. लेकिन फर्क यह दिख रहा है कि भाजपा की राजनीति बंगाल की संस्कृति के विपरीत एक नया प्रयोग है. भाजपा के सांस्कृतिक, राष्ट्रवाद की अवधारणा को भले ही चुनाव परिणाम ने खारिज कर बहुलतावादी सांस्कृतिक राजनीति का परचम लहराया हो लेकिन भाजपा एक पारंपरिक बंगाली विपक्ष से बहुत अलग मिजाज की पार्टी है.
ममता बनर्जी को उन खतरों और चुनौतियों का कितना अहसास है यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन इतना तय है कि 2021 के बाद के बंगाल की राजनीति बिल्कुल अलग तरीके की होने जा रही है. भाजपा समझ रही है कि उसके ध्रुवीकरण के एजेंडे ने उसे उतनी ताकत तो दे ही है कि वह ममता बनर्जी के एक मात्र विकल्प के रूप में अपने को स्थापित कर सकती है. हालांकि भाजपा के भविष्य की राह भी इतनी असान नहीं दिख रही है. वाम दल और कांग्रेस भले ही बुरी तरह हारे हैं लेकिन वे पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे यह आकलन भारी भूल होगी. वामफ्रंट ने जिस तरह 2021 के चुनाव में युवाओं पर भरोसा जताया है उससे यह तो कहा ही जा सकता है कि आने वाले दिनों में बंगाल की राजनीति केवल दो दलों के बीच ही केंद्रित नहीं रहेगी. चूंकि बंगाल की सांस्कृतिक चेतना बेहद मजबूत है और उसमें दरार आसानी से नहीं पड़ने जा रही है. यही वह सबसे बड़ा आधार है जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सभी प्रयासों को खारिज करने का समीकरण बना सकता है.
चुनाव को हर हाल में जीत लेने की नरेंद्र मोदी, अमित शाह की मिशनरी के हमेशा कारगर होने की मीडिया अवधारणा टूटी है. क्षेत्रीय संस्कृतियों की समझ को आत्मसात करने की भाजपा की राजनीतिक समझ को भी बंगाल ने चुनौती दिया है. चुनाव बाद की हिंसा के बाद भाजपा चाह रही है कि वह अपने दावों के पराजय की कसक को लोगों के दिमाग से बाहर करे. यह तो साफ है कि ममता बनर्जी को आने वाले दिनों में केंद्र, राज्यपाल और विधानसभा में भारी परेशानी का सामना करना पड़ेगा. भाजपा ने कई राज्यों को पार्टियों में तोड़फोड़ कर हार को जीत में बदला है. भाजपा में आए तृणमूल के कुछ नेताओं की कोशिश भी यही होगी कि वह अपनी पूर्व की पार्टी और ममता बनर्जी को कमजोर करें. उनकी यही भूमिका उन्हें भाजपा में महत्वपूर्ण बनाएगी.
शपथ लेते ही ममता बनर्जी को न केवल कोविड के विस्फोट से लोगों की जिंदगियों को बचाने की चुनौती है बल्कि हिंसा को भी तुरंत रोकने की जरूरत है. ममता बनर्जी ने उस पुलिस डीजीपी को बदल दिया है जिसे चुनाव आयोग ने नियुक्त किया था. लेकिन ममता बनर्जी को राज्य स्तर पर पुलिस प्रशासन को एक नया कलेवर देना ही होगा ताकि जब वे केंद्र से लड़ें तो राज्य में नीचे स्तर पर किसी तरह की अराकता का माहौल ना बने. यह तो तय ही कि आने वाले दिनों में केंद्र से ममता की लड़ाई होगी क्योंकि मोदी सरकार का रवैया गैर भाजपा शासित राज्यों को ले कर सख्त और असहयोग जैसा है. कोरोना महामारी में भी गैर-भाजपा शासित राज्य यह कह रहे हैं. चूंकि ममता बनर्जी ने केंद्रीय राजनीति में दखल देने का संकेत दिया है. नरेंद मोदी और अमित शाह तो अपनी मामूली हार भी नहीं भूलते हैं बंगाल में तो उनका बड़ा दांव है. विपक्ष के लिए ममता बनर्जी जितनी बड़ी ऊर्जा बनेगी बंगाल में भाजपा की गतिविधियों ममता सरकार की राह को कठिन बनाने की दिशा में उतनी ही सक्रिय होगी. आर्थिक और सामाज में आए टूटन को भरने की चुनौती का किस तरह ममता बनर्जी सामना करती हैं इस पर ही उनकी राजनीति का भविष्य तय होगा.