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नारी शिक्षा के जन्मदाता हैं महात्मा ज्योतिबा फुले

Anant Kumar Bermo: आज बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ का नारा दिया जा रहा है. एक ऐसा भी समय था जब लड़कियों की शिक्षा पर बात करना ठीक नहीं समझा जाता था. उन्हें समाज में दुश्मन की तरह देखा जाता था. नारी शिक्षा उस काल में समाज की दृष्टि से एक निराशाजनक युग ही कहा जा सकता है. स्त्रियां चाहे किसी भी वर्ग या जाति की क्यों ना हो, उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं था. तब बाल विवाह जोरों पर था. खेलने खाने की उम्र में ही नन्ही मुन्नी बच्चियों को सास ननद और जेठानी के ताने सुनने पड़ते थे. स्त्रियों को केवल मंदिर में भगवान के दर्शन के लिए ही घर से निकलने की इजाजत थी. वह किसी मसले पर अपनी राय तक नहीं दे सकती थी. यानी उनके विचारों की अभिव्यक्ति पर पूरी तरह से पाबंदी थी. कड़ा पहरा था. बड़े घरानों की बहू बेटियों पर पाबंदी बहुत ज्यादा थी. उन्हें केवल यही नसीहत दी जाती थी कि वह घरों में ही रहें. अपना पूरा जीवन परिजनों की सेवा में ही लगायें. बाल बच्चे पैदा करें. उनका लालन पोषण करें. रसोई का काम करने में अपने को धन्य समझें. जब भारत पर अंग्रेजों का अधिकार हो चुका था. देश में अंग्रेजी राज के साथ-साथ ईसाई मिशनरियों का भी प्रादुर्भाव हुआ. उनको यदा-कदा पुजारियों के विरोध का सामना भी करना पड़ता था. कहते हैं कि जब मानवता की पीड़ा हद से ज्यादा बढ़ जाती है, तब पृथ्वी की कोख से जलते हुए लावा के समान किसी ना किसी महापुरुष का जन्म होता है. वह अपने समय की परंपराओं और रूढ़ियों से लड़ता हुआ मानवता का उद्धार करता है. गुलामी की बेड़ियों को तोड़ता है. सामाजिक समरसता का निर्माण करता है. वह बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के मार्ग को प्रशस्त करता है. ऐसे माहौल में ज्योतिबा का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के खानवाड़ी नामक गांव में 11 अप्रैल 1927 को हुआ. इनके पिता गोविन्दराव थे. माली जाति के होने के कारण पीढ़ियों से इनका पेशा फूल उगाने का था. बाद में इन्हें फूले कहा जाने लगा. ज्योतिबा जब 9 महीने के थे, उसी समय उनकी माता चिमनाबाई का निधन हो गया. उसका लालन पालन मौसेरी बहन सगुनाबाई ने की.

शिक्षा और संघर्ष

ज्योतिबा फूले की शिक्षा मिशनरी स्कूल से हुई. उनके पिता गोविन्दराव पढ़े लिखे नहीं थे. उस पीढ़ी के दौर में शिक्षा पर प्रतिबंध था. वह अपने पुत्र को खूब पढ़ाना चाहते थे. सगुनाबाई एक जॉन मिशनरी के यहां `आया` का काम करती थी. उसी के सहयोग से ज्योतिबा का मिशनरी स्कूल में दाखिला हो गया. 13 वर्ष की उम्र में ज्योतिबा फूले की शादी सावित्री बाई फुले से हो गई. समाज में रूढ़िवादी परंपरा पहले से ही मौजूद थी. लेकिन ज्योतिबा को उस समय ज्यादा अपमान सहना पड़ा जब अपने ब्राह्मण मित्र के भाई की शादी के बारात से उन्हें लौटना पड़ा. उस रात वे सो न सके. जब उन्होंने सारी घटना अपने पिता को सुनाई तो पिता भी घटना को जायज कहा. यह बात सुनकर वे दंग रह गए. ज्योतिबा ने वर्ण व्यवस्था के चंगुल में फंसी मानवता को आजाद कराने का बीड़ा उठाया. उन्होंने छोटी जातियों के लोगों को लामबंद करने और उनमें जागृति लाने की ठानी. उन्होंने लडकों के अपेक्षा लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की योजना बनाई. 14 जनवरी 1848 को पूना में लड़कियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल खोला. पहली छात्रा उनकी पत्नी सावित्री बनी. यह दिन भारतीय नारियों के लिए स्वर्णिम दिन साबित हुआ. इसके बाद लगातार उन्होंने महिलाओं और शूद्रों के लिए 18 स्कूल खोले. ज्योतिबा फुले की राह में पग-पग पर कांटे बिछे थे. इतना होने पर भी ज्योतिबा फुले का शूद्रों और नारी शिक्षा का कार्य निरंतर चल रहा था. इसी बीच उनके सामने एक बार समस्या खड़ी हुई. विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से कुछ तरुण लड़कियें ने प्रवेश लेना चाहा. लेकिन लड़कियां वहां पर पढने वाले अन्य तरुण लड़कों के साथ एक ही कमरे में बैठकर पढ़ाई करने को तैयार नहीं थी. ज्योतिबा ने तुरंत उस समस्या का समाधान किया. लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूल खोल कर उन्हें शिक्षा देना शुरू किया. 1882 में भारत सरकार ने विलियम हंटर की अध्यक्षता में शिक्षा आयोग गठित किया था. उसी समय ज्योतिबा ने शिक्षा से संबंधित अपना विस्तृत पत्र आयोग को प्रेषित किया. वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने दलितों और पिछड़ों में व्यापक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया. लॉर्ड रिपन के समय में हंटर आयोग का गठन शिक्षा क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास था. ज्योतिबा को यहां की जटिल सामाजिक जीवन की जानकारी थी. वे यहां गरीबी, धार्मिक कट्टरता, जाति पाति, संप्रदायवाद और छुआछूत की भावना से वाकिफ थे. दलितों और मेहनतकश जातियों में शिक्षा के मूल कल्पना को ही मृतप्राय बना डाला था. इसे भी पढ़ें-  किरीबुरु">https://lagatar.in/kiriburu-jmm-leader-objected-to-distribution-of-old-clothes-said-there-is-no-poor-in-saranda/">किरीबुरु

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वे जानते थे कि उनमें जब तक सामाजिक क्रांति नहीं आती है वे शिक्षा के प्रति उदासीन बने रहेंगे. बिना शिक्षा के सामाजिक आर्थिक प्रगति संभव नहीं है. इसलिए उन्होंने शिक्षा पर जोर दिया. उन्होंने विधवा विवाह के लिए संघर्ष किया. विधवाओं के मुण्डन संस्कार का विरोध किया. नाई समाज को ऐसा नहीं करने के लिए जागृत किया. विधवाओं का विवाह कराया. अछूतों के लिए अपने मकान स्थित कुएं खोदे. उन्हें पानी मुहैया कराये. सन् 1873 में सत्यशोधक समाज नामक संगठन का निर्माण किया. दीनबंधु नामक अखबार निकाले. उन्होंने अंधविश्वास, धार्मिक रूढ़िवादिता, पुरोहितवाद, संकीर्ण विचारों, ब्राह्मणी कर्मकांड और अस्पृश्यता का विरोध किया. जीवन पर्यंत सामाजिक मानसिक रूप से मंद और आर्थिक रूप से पंगु बनाए गए समाज में क्रान्ति का बीज बोए. इसे भी पढ़ें-   मां">https://lagatar.in/worship-of-mother-siddhidatri-offering-of-sesame-seeds-attainment-of-accomplishment-and-salvation/">मां

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