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झारखंड के जंगलों में हरियाली की मुहिम : सीड बॉल तकनीक से आदिवासी समाज ने लिया पर्यावरण संरक्षण का संकल्प

जंगल सिर्फ सांसों का सहारा नहीं, जीवन का आधार हैं  और झारखंड के आदिवासी गांव इसे भली-भांति समझते हैं

Pravin Kumar

Ranchi: झारखंड के सघन वन क्षेत्र केवल ऑक्सीजन के स्रोत नहीं हैं, वे यहां के आदिवासी समाज की संस्कृति, जीविका और पहचान से भी जुड़े हुए हैं. यही कारण है कि विश्व पर्यावरण दिवस झारखंड के लिए केवल एक प्रतीकात्मक तिथि नहीं, बल्कि प्रकृति से जुड़े जीवन दर्शन की सतत अभिव्यक्ति बन चुका है.

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यहां के आदिवासी गांवों में हाल के वर्षों में एक नई पहल की शुरुआत हुई है  'बीज विसर्जन' या प्राकृतिक वृक्षारोपण. इसमें बरसात के मौसम में जंगलों के खाली इलाकों में स्थानीय पेड़ों के बीज फेंके जाते हैं, जिन्हें ग्रामीण वर्षभर सहेजते हैं. करंज, साल, आम, इमली जैसे बीज न केवल जलवायु के अनुकूल होते हैं, बल्कि जंगल की पारंपरिक जैव विविधता को भी बनाए रखते हैं.

 

इसी विचार को और विस्तार देने के लिए सामाजिक संस्था फिया ने 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर एक अनूठी पहल की थी. संस्था ने मनोहरपुर, पाकरटांड़, चैनपुर, ठेठईटांगर और महुआडांड़ प्रखंडों के 11 गांवों — सिरका, रबांगदा, बिनवा, केसलपुर, अपर डुमरी, कोनपाला, बम्बलकेरा, चुरिया, मेदारी, करकट और दुआना — में ग्रामीणों के साथ मिलकर सीड बॉल निर्माण कार्यक्रम का आयोजन किया.

 

इस कार्यक्रम में लगभग 5,000 सीड बॉल तैयार किए गए, जिनमें साल, करंज, आम, इमली, कटहल, कुसुम, चिरौंजी, नीम, जामुन और केंदू जैसी स्थानीय प्रजातियों के बीजों का उपयोग किया गया. मिट्टी और जैविक खाद से बने इन बॉल को जंगलों में फेंका गया ताकि वर्षा के साथ बीज अंकुरित हों और खाली स्थानों में हरियाली लौटे.

 

एफआरसी अध्यक्ष विजय तिग्गा (गांव: सिरका, प्रखंड: मनोहरपुर) ने बताया, ‘हमारे जंगलों से जरूरी प्रजातियां धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं. सीड बॉल एक बेहद आसान, सस्ती और असरदार तकनीक है जो जंगलों की हरियाली लौटा सकती है और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में मदद कर सकती है.’

 

रबांगदा गांव के ग्राम प्रधान बिरसा कुजूर और एफआरसी सचिव गंगाराम तिग्गा ने बताया, ‘सीड बॉल के बारे में पहले हमें जानकारी नहीं थी, लेकिन यह जंगलों को पुनर्जीवित करने का सशक्त माध्यम बन सकता है. इसे व्यापक स्तर पर अपनाने की जरूरत है.’

 

कार्यक्रम का सकारात्मक असर जल्द ही दिखने लगा. युवाओं, महिलाओं और बच्चों ने पहली बार इस तरह की गतिविधि में हिस्सा लिया और इसे केवल एक सरकारी या एनजीओ गतिविधि न मानते हुए, ‘अपने जंगलों को बचाने की जिम्मेदारी’ माना. इसमें न केवल पर्यावरणीय जागरूकता आई, बल्कि एक प्रकार का सामुदायिक चेतना जागरण भी हुआ.

 

अब ये गांव हरियाली की एक नई क्रांति की ओर बढ़ रहे हैं. पारंपरिक आदिवासी ज्ञान और आधुनिक टिकाऊ तकनीक (सीड बॉल) मिलकर जंगलों को फिर से जीवंत कर रहे हैं. इलके में यह यह पहल सिर्फ वृक्षारोपण नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण बन चुकी है — जहां प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व को फिर से समाज में जगह मिल रही है. आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ पर्यावरण और समृद्ध वन संपदा को सौंपने का यह संकल्प झारखंड को पूरे देश में एक पर्यावरणीय मिसाल बना रहा है.

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