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महिलाओं के नेतृत्व में जंगल बचाने की मुहिम: कूटनीय गांव को मिला अधूरा वन अधिकार, लेकिन नहीं टूटी हिम्मत

38 एकड़ पर सीमित पट्टा, 200 एकड़ के दावे पर सरकार से फिर उठी मांग; रोजगार की कमी से जारी है पलायन

 

Pravin Kumar  

 

Simdega : झारखंड के सिमडेगा जिले के कूटनीय गांव की महिलाएं, अधूरे वन अधिकार के बावजूद, जंगल की रक्षा और प्रबंधन की एक मिसाल पेश कर रही हैं. वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) के तहत गांव ने 200 एकड़ वन भूमि पर सामुदायिक अधिकार का दावा किया था, लेकिन अगस्त 2024 में दिए गए पट्टे में सिर्फ 38 एकड़ भूमि ही स्वीकृत हुई. बावजूद इसके, गांव की महिलाएं हार नहीं मानीं — उन्होंने जंगल को संरक्षित और पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी खुद उठाई.

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अधिकार अधूरा, लेकिन संकल्प पूरा : प्यारी कंडुलना

 

गांव की वन प्रबंधन समिति की अध्यक्ष प्यारी कंडुलना बताती हैं कि भले ही जमीन कम मिली, लेकिन जंगल को बचाने के लिए गांव ने सामूहिक प्रयास शुरू कर दिया. महिलाओं के नेतृत्व में 1500 से अधिक सीड बॉल (बीज गेंद) तैयार कर जंगल के खाली क्षेत्रों में रोपण किया गया है.
‘हमारा लक्ष्य सिर्फ पट्टा हासिल करना नहीं है. जंगल हमारी पहचान है – इसे बचाना, और आनेवाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना भी हमारा धर्म है.’

 

गांव के जंगलों में 20 से अधिक प्रकार की वन उपजें मिलती हैं, जो ग्रामीणों की मौसमी जरूरतों और आजीविका से जुड़ी हैं. ग्रामसभा में बैठकों के माध्यम से वन प्रबंधन योजना भी तैयार की जा रही है.

 

अगर पूरा पट्टा मिलता, तो रुकता पलायन : सरस्वती देवी

 

वन प्रबंधन समिति की कोषाध्यक्ष सरस्वती देवी कहती हैं कि अगर सरकार ने पूरा 200 एकड़ पट्टा दे दिया होता, तो आज गांव के युवक रोजगार की तलाश में बाहर न जाते.

 

‘हम केंदु पत्ते तोड़ते हैं, 4200 पत्तों पर बस 150 रुपये मिलते हैं. इससे क्या होगा? अगर पूरा पट्टा मिलता, तो कुटीर उद्योग से स्वरोजगार मिलता और हम सब यहीं रह सकते थे.’

 

सरकार से फिर उठी मांग

 

कूटनीय गांव की ग्रामसभा और वन प्रबंधन समिति ने झारखंड सरकार से दोबारा मांग की है कि 200 एकड़ के दावे के अनुरूप सामुदायिक वन अधिकार पट्टा दिया जाए. इससे न सिर्फ जंगल का सतत उपयोग संभव होगा, बल्कि पलायन जैसी सामाजिक समस्याओं पर भी लगाम लग सकेगी.

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