Ranchi : दीपोत्सव का पर्व 20 अक्तूबर को मनाया जाएगा. लेकिन इस बार कुछ खास होने वाला है. अब घर-आंगन में मिट्टी से बना टेराकोटा दीया ही नहीं, बल्कि गोबर से बने दीयों की रोशनी से भी सजाई जाएगी. रांची के सुकुरहुटू और बोड़ेया गांवों में इस समय दिन-रात गोबर से दीये मशीन से बनाई जा रही है. दीपावली तक कारीगरों ने दो लाख दीये बनाने का लक्ष्य रखा है.
बाजार में उतारे जाएंगें 10-12 तरह के दीये
इस बार दीयों की नई-नई किस्में बाजार में उतारी जाएगी. जिसमें कुम्हारों के चाक से मिट्टी से बने टेराकोटा दीया –100 रूपया सैकड़ा, फार्मा दीया 500 रूपये सैकड़ा, 5 रूपये प्रति पीस, चाक वाला दीया 150 सैकड़ा, कलर फैंसी दीया 10 रूपये प्रति पीस मिलेंगे. खरीदारों के पास इस बार दीयों का कलेक्शन और भी रंगीन होगा.
मिट्टी और जगह की कमी से बदल रहा दीये बनाने की परंपरा
कुम्हारों ने बताया कि अब मिट्टी आसानी से नहीं मिलती है. शहर होने के कारण जगह की भी दिक्कत हो रही है. धुआं-प्रदूषण के कारण पारंपरिक चाक की कला अब धीरे-धीरे खत्म हो रही है. सतीष प्रजापति बताते हैं, आज हालात यह है कि रांची में पारंपरिक चाक से बनने वाले दीये सिर्फ 1 प्रतिशत ही बचे हैं. आने वाली पीढ़ी शायद इस कला को देख भी न पाए.
बाहर से मंगवाने पड़ रहे मिट्टी के दीये
शहर में मिट्टी, कोयला, लकड़ी नहीं मिल रही है. दीये बनाने की कमी होने के कारण अब चाक के स्थान पर मशीन से दीये तैयार हो रही है.अब तो शहर में दीये बेचने के लिए ठाकुर गांव, नगड़ी, बोड़ेया, हरदाग, बलसगरा, पलामू और बंगाल से दीये मंगानी पड़ती है.
बारिश ने बढ़ाई कुम्हारों की परेशानी
दुर्गा पूजा में मूर्तिकारों और पंडाल कारीगरों को बारिश ने मुश्किल खड़े कर दिए है. अब कुम्हारों के लिए बारिश मुसीबत बन रहे है. इसकी वजह से कुम्हारों को दीये बनाने में मुश्किल हो रही है. 20 अक्तूबर को दीपोत्सव मनाए जायेंगे.
लेकिन बारिश के कारण कुम्हारों के हाथों से बने दीये को सुखाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. दीया घर में तो बनाया जा सकता है, लेकिन सुखाने में सबसे बड़ी दिक्कत आती है. बारिश या नमी से कई दीये फट जाते हैं.
50-70 रुपये महंगे होंगे मिट्टी के दीये
पिछले साल दीये 100–120 रुपये सैकड़ा बिके थे. इस बार लागत और मेहनत बढ़ने से कीमत 150–200 रुपये सैकड़ा तक पहुंच सकती है. यानी बाजार में दीयों का कारोबार इस बार करोड़ों रुपये का होने की संभावना है.
एक ओर गोबर और मशीन से बने दीये बाजार में नई चमक लाएंगे, वहीं दूसरी ओर कुम्हारों की सदियों पुरानी परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है. शहर में कभी हजारों कुम्हार परिवार दीपावली के समय चाक घुमाकर दीये बनाते थे, आज गिनती के ही कुम्हार इस धंधे में बचे हैं.
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