- एलबीएसएम कॉलेज में झारखंड की स्थानीयता की नीति पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित
विश्वविद्यालय : दीक्षांत समारोह की तिथि तय नहीं, सफा की जगह लेगी टोपी संगोष्ठी में मुख्य वक्ता डॉ सुजीत कुमार ने अंग्रेजों के आने के बाद झारखंड में भूमि-अधिकार में हुए बदलावों और उसके विरुद्ध आदिवासियों समेत सभी मूलवासियों के संघर्षों और भूमि-बंदोबस्तियों के इतिहास का विस्तार से जिक्र करते हुए कहा कि 1932 के खतियान में व्यक्तिगत, सामुदायिक संपत्ति के साथ जंगलों का भी ब्यौरा है. उन्होंने कहा कि जबसे झारखंड में महागठबंधन की सरकार बनी है तबसे आदिवासियों और सदानों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए वह 1932 के खतियान को स्थानीयता का आधार बनाने पर जोर दे रही है. ऐसा लगता है कि जिस अस्मितवादी राजनीति के फलस्वरूप 2000 में झारखंड बना था, वह बीच में खो गयी थी, लेकिन वह नये सिरे से उभर रही है. इस अस्मितावादी राजनीति से शायद कोई भी राजनीतिक पार्टी बच नहीं पाएगी. इसे भी पढ़ें : जमशेदपुर">https://lagatar.in/jamshedpur-vedanta-resources-limited-locks-20-students-of-karim-city-college-on-a-package-of-4-65/">जमशेदपुर
: करीम सिटी कॉलेज के 20 छात्रों को वेदांता रिसोर्सेज लिमिटेड ने 4.65 के पैकेज पर किया लॉक इससे पूर्व अतिथियों ने दीप प्रज्वललित कर संगोष्ठी की शुरुआत की. डॉ विनय कुमार गुप्ता ने स्वागत भाषण किया. कॉलेज के प्राचार्य डॉ अशोक कुमार झा ने डॉ सुजीत कुमार और डॉ विनय कुमार को शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया. विषय प्रवेश कराते हुए राजनीति विज्ञान विभागाध्यक्ष डॉ विनय कुमार गुप्ता ने कहा कि झारखंड के लोगों के लिए स्थानीयता की नीति आवश्यक है. नौकरियों में भागीदारी के लिए यह नीति जरूरी है. यह जरूर बहस का विषय है कि इसका आधार 1932 को बनाया जाए, 1985 को या 2000 को. जब झारखंड राज्य अस्तित्व में आया. संगोष्ठी का संचालन हिन्दी विभाग के डॉ सुधीर कुमार ने किया. इसे भी पढ़ें : रांचीः">https://lagatar.in/ranchi-hemant-sarkar-once-again-cheated-the-mercury-teachers-raghuvar-das/">रांचीः
हेमंत सरकार ने पारा शिक्षकों को एक बार फिर ठगा- रघुवर दास अध्यक्षीय वक्तव्य में प्राचार्य डॉ अशोक कुमार झा ने कहा कि स्वयं को बचाने के लिए प्रकृति को, जल-जंगल-जमीन को बचाना ही होगा. झारखंड की जनता की स्थिति ‘पानी बीच मीन प्यासी’ जैसी क्यों है? इस विषय पर गंभीरता से सोचना होगा. झारखंड की संस्कृति काफी समृद्ध है. इसके संरक्षण के साथ हमें यह भी सोचना होगा कि कोई भी चीज जनता के विकास में बाधक न हो. वक्त के साथ राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन भी आवश्यक हो जाता है. जिस समय यहां बिहारियों और बंगालियों के आने की बात की जा रही है, उस समय तो बिहार, बंगाल और ओड़िशा संयुक्त प्रांत थे. झारखंड अलग नहीं था. उस समय तो सभी एक ही संयुक्त प्रांत के अंतर्गत थे. इसे भी पढ़ें : चाईबासा">https://lagatar.in/chaibasa-two-teachers-contributed-to-the-department-of-post-graduate-philosophy-of-kolhan-university/">चाईबासा
: कोल्हान विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग में दो शिक्षकों ने दिया योगदान उन्होंने कहा कि जबसे झारखंड आंदोलन शुरू हुआ और जिसके परिणामस्वरूप झारखंड नामक राज्य बना, उसके बाद मूलवासी या आदिवासी-गैरआदिवासी की अवधारणाएं सामने आयीं. बेशक स्थानीय लोगों की नौकरियों और रोजगार को हल करने के लिए गंभीरता से प्रयास किया जाना चाहिए। झारखंड के युवाओं को उंची उड़ान के लिए पंख देने की जरूरत है. यह राजनीतिक पार्टियों की चिंता का विषय होना चाहिए कि विकास की दौड़ में झारखंड की जनता पीछे न रह जाए. धन्यवाद ज्ञापन हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो पुरुषोत्तम प्रसाद ने किया. इस अवसर पर डॉ डीके मित्रा, डॉ मौसुमी पॉल, प्रो अरविंद प्रसाद पंडित, डॉ संतोष राम, डॉ जया कच्छप, डॉ रितु, डॉ शबनम परवीन, डॉ सलोनी रंजन, डॉ प्रशांत, डॉ संतोष कुमार, डॉ नूपुर राय, डॉ रानी, प्रो मोहन साहू समेत शिक्षक-शिक्षिकाएं व छात्र-छात्राएं उपस्थित थे. [wpse_comments_template]
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