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Bahragoda:  स्वर्णरेखा नदी से सोने के बारीक कणों को निकाल जीवनयापन कर रहे बार्णीपाल के कई परिवार

स्वर्णरेखा नदी के रेत को छानने के बाद पत्थर पर जमा सोना.

Himangshu Karan

Bahragoda: जहां दुनिया में पानी की कमी और प्रदूषण को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं, वहीं झारखंड की एक नदी सैकड़ों परिवारों के लिए साक्षात वरदान साबित हो रही है. पूर्वी सिंहभूम जिले के बहरागोड़ा प्रखंड क्षेत्र की बनकाटा पंचायत के बार्णीपाल गांव में स्वर्णरेखा नदी (Subarnarekha River) की रेत आज भी सोना उगलती है. यहां के कई परिवार सदियों से इस नदी के तल से सोने के बारीक कणों को निकालकर न सिर्फ अपना जीवनयापन कर रहे हैं, बल्कि एक अनोखी और रहस्यमय परंपरा को भी जीवित रखे हुए हैं.

दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद मिलते हैं सोने के चंद कण

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यह कहानी सिर्फ रोजगार की नहीं, बल्कि एक ऐसे पुश्तैनी पेशे की है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन परिवारों को भरण-पोषण दे रहा है. बार्णीपाल गांव के कई परिवार, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं, हर सुबह नदी के किनारे पारंपरिक औजारों और सूप (लकड़ी से बना छलनी जैसा पात्र) के साथ पहुंचते हैं. ग्रामीण नदी की रेत को बड़ी सावधानी से पानी के साथ छानते हैं. उनकी कुशल आंखें और वर्षों का अनुभव रेत में छिपे छोटे-छोटे सोने के कणों को अलग कर लेते हैं. एक व्यक्ति को एक दिन की कड़ी मेहनत के बाद औसतन कुछ कण ही मिल पाते हैं, जिन्हें स्थानीय व्यापारी या सोनार खरीद लेते हैं. इसी छोटी सी रकम से इन परिवारों की रोजमर्रा की ज़रूरतें पूरी होती हैं. यह काम मॉनसून के तीन-चार महीनों को छोड़कर पूरे साल अनवरत चलता रहता है.

अद्भुत रहस्य: कहां से आता है यह सोना?

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स्वर्णरेखा नदी में सोने के कणों का मिलना भू-वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक अनसुलझा रहस्य है. रांची से निकलने वाली और झारखंड, ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल से होकर बंगाल की खाड़ी में मिलने वाली यह नदी क्यों सोना बहाती है, इस पर कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला है. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि नदी अपने बहाव के दौरान उन चट्टानों से गुजरती है जिनमें सोने के निक्षेप मौजूद हो सकते हैं. वहीं, स्थानीय लोगों के लिए यह नदी एक पवित्र और ईश्वरीय चमत्कार से कम नहीं है. यह नदी उनके लिए केवल जल स्रोत नहीं, बल्कि एक 'स्वर्णिम बैंक' है, जो उनकी गरीबी को दूर रखने का जरिया है.

सरकार की अनदेखी और परिवारों का संघर्ष

सोना निकालने का यह पारंपरिक काम इन परिवारों का एकमात्र सहारा है, लेकिन यह बेहद कठिन और असुरक्षित है. यह व्यवसाय असंगठित है और इन परिवारों को अपनी मेहनत का उचित मूल्य भी नहीं मिल पाता. न ही उन्हें कोई सरकारी सहायता या सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ मिलता है. बावजूद इसके, बहरागोड़ा के इन मेहनतकश परिवारों ने अपने सदियों पुराने ज्ञान और कौशल को जीवित रखा है. स्वर्णरेखा नदी के किनारे उनका यह संघर्ष और जीविका का अनोखा तरीका, भारत की लोक-परंपराओं और प्रकृति के साथ मानव के गहरे संबंध का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है. बार्णीपाल की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि हमारे देश में आज भी ऐसे अजूबे हैं, जिनकी चमक विज्ञान की रोशनी में भी पूरी तरह से सामने नहीं  पाई है.

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