बैजनाथ मिश्र
अमेरिका के अधकपारी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर पचास फीसदी टेरिफ यानी चुंगी लगा दी है. भारत अमेरिका को जो सामान बेचता है, वह पचास फीसदी महंगा हो जायेगा. इसका असर यह होगा कि भारतीय सामान अमेरिकी बाजार में नहीं बिकेंगे या कम बिकेंगे. इसका असर हमारे उद्योग-धंधों पर पड़ेगा. मजदूरों, कारीगरों, तकनीशियनों की छंटनी हो सकती है. यानी हमें घाटा होगा. यह घाटा कितना होगा, इस बाबत अर्थशास्त्री हिसाब-किताब लगा रहे हैं. इनमें से अधिकतर का मानना है कि इससे हमारी जीडीपी पर आधा फीसदी से भी कम असर पड़ेगा, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात से अधिक घरेलू खपत पर टिकी है.
संभव है सरकार इस संकट से उबरने के लिए दूसरे देशों में बाजार तलाश रही हो. भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था दुनिया के कई देशों को खटक रही है और अब बाहुबली अमेरिका पिनक गया है. सवाल यह है कि मोदी से दोस्ती गांठनेवाले ट्रंप अचानक पगला क्यों गये हैं?
दरअसल ट्रंप को शांति का नोबेल चाहिए. इसके लिए वह दुनिया भर में झगड़े और युद्ध रुकवाने का श्रेय लेना चाहते हैं. इजरायल और पाकिस्तान ने इसके लिए सिफारिशी पत्र लिख दिया है, लेकिन भारत ने ट्रंप की चालबाजी फुस्स कर दी है. उसने भारत-पाक के बीच चार दिनों का संघर्ष रुकवाने का श्रेय लेना चाहा. उसने ट्रेड डील का हवाला देकर संघर्ष विराम कराने का तमगा लेने की लगातार कोशिश की, लेकिन भारत ने साफ-साफ कह दिया कि संघर्ष विराम के लिए दुनिया के किसी भी देश ने पेशकश नहीं की. ट्रंप चाहते तो यह थे कि उनके बयान पर मोदी कम से कम चुप्पी साध लें, लेकिन प्रधानमंत्री ने लोकसभा में वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी.
इससे पहले जून में ट्रंप मोदी को वाशिंगटन बुला रहे थे. वहां आसिम मुनीर भी मौजूद था. मोदी ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया और फोन पर यह भी बता दिया कि पाक से संघर्ष विराम को लेकर अमेरिका से कोई बात नहीं हुई. इसके बाद ब्रिक्स सम्मेलन में डॉलर के समानांतर नयी विनिमय मुद्रा पर प्रस्ताव पारित हो गया. इससे ट्रंप और चिढ़ गये. अमेरिकी डॉलर के निस्तेज होने की आशंका बढ़ गयी.
जहां तक ट्रेड डील की बात है, अमेरिका चाहता था कि भारत कृषि और डेयरी क्षेत्र उसके लिए शून्य चुंगी पर खोल दे. भारत ऐसा कर नहीं सकता है. इससे भारतीय किसान और पशुपालक बर्बाद हो जायेंगे. कारण यह कि अमेरिकी कृषि उपज जीएम (जेनेटिक मोडिफायड) बीजों पर निर्भर है और यदि ऐसे अनाज भारत पहुंच जाते तो हमारी कृषि अमेरिका के चंगुल में फंस जाती. अंगर ट्रंप के लिए अमेरिका फर्स्ट है तो हमारे लिए नेशन फर्स्ट बाध्यकारी है. यानी बात बिगड़ती चली गयी.
अमेरिकी जेट एफ-35 की खरीद के मुद्दे ने भी आग में घी डालने का काम किया. दुनिया जानती मानती है कि भारत को पांचवी और उससे ऊपर की पीढ़ी के फाइटर विमानों की सख्त जरूरत है. अमेरिका चाहता था कि भारत एफ-35 के लिए उससे डील कर ले. लेकिन भारत इसके खिलाफ था. इसका कारण यह है कि एक तो एफ-35 की गिनती घटिया जेट की श्रेणी में होने लगी है. अब तक करीब छह दर्जन एफ-35 अलग-अलग कारणों से गिर चुके हैं. एक तो हमारे केरल में ही महीने भर पड़ा रहा और मीडिया मजे लेकर उसकी खबरें छापता-चलाता रहा. दूसरा कारण यह है कि ये विमान अपेक्षाकृत महंगे भी हैं और कोढ़ में खाज यह कि अमेरिका सिर्फ विमान देता है, तकनीक नहीं. यानी एफ-35 लेने के बावजूद उस पर नियंत्रण अमेरिका की ही रहता और हम अपनी जरूरत के हिसाब से न तो उसे परिष्कृत कर सकते थे, न अपनी पसंदीदा मिसाइलें फिट कर सकते थे.
इसके उलट रूस हमें सस्ती दर पर तकनीक के साथ एसयू-57 देने को तैयार है. रूस हमारा सदा से विश्वसनीय साथी रहा है. भारत का रूस से तेल खरीदना अमेरिका के लिए एक बेतुका बहाना है. पूरा विश्व जानता है अमेरिका स्वयं रूस से व्यापार कर रहा है. जब पत्रकारों ने इस बारे में ट्रंप से पूछा तो उन्होंने धूर्ततापूर्ण शब्दों में कहा कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं है. समूचा यूरोप रूस से ऊर्जा, फर्टिलाइजर और खनिज ले रहा है. इसलिए भारत तेल ले रहा है तो हम पर टैरिफ थोपने का औचित्य क्या है? इसे कहते हैं कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना.
ट्रंप अपनी पीड़ा की असली वजह छिपाना चाहते हैं, लेकिन चोट इतनी गहरी और वेदनादायी है कि इसकी टीस साफ सुनाई दे रही है. वैसे भी अमेरिका ने हर नाजुक मोड़ पर भारत के साथ दगा किया है. नेहरू के समय हमारे स्टील संयत्रों की स्थापना के लिए उसने तकनीक देने से मना कर दिया. बाद में रशिया, चेकोस्लोवाकिया और जर्मनी ने सहयोग किया. शास्त्री जी के समय में उसने गेहूं देने से मना कर दिया था और काफी हुज्जत के बाद दिया भी तो सड़ा-गला. इससे तंग आकर शास्त्री जी ने हफ्ते में एक शाम उपवास का आह्वान किया था. बांग्लादेश युद्ध के समय अमेरिका भारत के खिलाफ तन कर खड़ा था और पाक की हर संभव मदद कर रहा था.
बहरहाल ऐसा लग रहा था कि एलपीजी (लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) के जमाने में चुंगी-नाका नहीं चलेगा, लेकिन बिगड़ैल ट्रंप सींग घुसेड़ रहे हैं तो इससे बचाव या कम से कम नुकसान का उपाय तो भारत को करना ही पड़ेगा.
खैर, अब लौटते हैं नोबेल प्राइज की लालसा में अधीर ट्रंप की पैंतरेबाजी पर. उन्होंने अर्मेनिया और अजरबैजान के बीच दशकों से जारी संघर्ष पर विराम लगवा दिया है. अर्मेनिया फिलहाल भारत के पाले में था और अजरबैजान पाकिस्तान के. अब ट्रंप रूस-यूक्रेन युद्ध रुकवा कर शांति के मसीहा का मुकुट पहनकर इतराने वाले हैं. यह युद्ध भी उन्होंने और नाटो देशों ने ही कराया था. जेलेंस्की नहीं मान रहे हैं. नाटो देश भी कह रहे हैं कि जेलेंस्की की गैर मौजूदगी में पुतिन-ट्रंप युद्ध विराम का फार्मूला कैसे तैयार कर सकते हैं. पुतिन यूक्रेन के एक चौथाई हिस्से पर कब्जा चाहते हैं. यूक्रेन इसके लिए तैयार नहीं है. लेकिन ट्रंप को शांति का नोबेल चाहिए और इसके लिए वह जेलेंस्की और यूक्रेन को निचोड़ भी सकते हैं.
इधर आसिम मुनीर फिर अमेरिका में है और परमाणु हमले की फिर धमकी दे रहा है. वह अमेरिकी सैन्य अधिकारियों से भी मिल रहा है और सैन्य सहयोग का आश्वासन भी ले रहा है. यह है ट्रंप प्रशासन का दोगलापन. शांति दूत के अहंकार में विचरण कर रहे ट्रंप अपने घर से परमाणु हमले की धमकी दिलवा रहे हैं.
संभव है यह ट्रंप की ही कोई चाल हो, ताकि भारत-पाक फिर से भिड़ें और उन्हें बीच-बचाव करने का प्रत्यक्ष अवसर मिले. इसलिए हमें सतर्क और सावधान रहने की आवश्यकता है. ट्रंप शांति दूत बनने के लिए कुछ भी कर-करा सकते हैं.
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