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घाटशिला उपचुनाव : सोमेश या बाबूलाल, किसका खेल बिगाड़ेंगे जयराम! सियासी मंथन तेज

Ranchi/Ghatsila :  झारखंड की राजनीति में इस वक्त सबसे ज्यादा चर्चा घाटशिला उपचुनाव की हो रही है. तारीख नजदीक आते ही राजनीतिक सरगर्मी चरम पर पहुंच गई है. एक तरफ जहां झामुमो प्रत्याशी सोमेश सोरेन और भाजपा उम्मीदवार बाबूलाल सोरेन के बीच सीधी टक्कर की चर्चा थी.

 

इस बीच डुमरी विधायक जयराम महतो की पार्टी जेएलकेएम की एंट्री ने समीकरण को दिलचस्प बना दिया है. सवाल यह है कि क्या जयराम महतो का ‘टाइगर फैक्टर’ किसी एक का खेल बिगाड़ेगा या फिर इस बार भी वे सिर्फ वोटकटवा की भूमिका में रह जाएंगे.

 

बेरोजगारी-पलायन प्रमुख मुद्दा

घाटशिला विधानसभा क्षेत्र की अधिकांश आबादी ग्रामीण है और यहां रोजगार का मुख्य साधन खनन और छोटे-मोटे व्यवसाय हैं. बड़ी संख्या में लोग मजदूरी पर निर्भर हैं. चुनावी मुद्दों में बेरोजगारी, पलायन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें इस बार भी केंद्र में हैं.

 

घाटशिला विधानसभा क्षेत्र की कुल आबादी करीब 3.21 लाख है, जिनमें 2.55 लाख से अधिक मतदाता हैं. इनमें पुरुष मतदाता 1,24,899 और महिला मतदाता 1,30,921 हैं.

 

जातिगत आधार पर देखें तो लगभग 48% मतदाता आदिवासी (एसटी) हैं. वहीं ओबीसी की हिस्सेदारी करीब 40% और एससी वर्ग के मतदाता लगभग 5.3% हैं. यानि फैसला काफी हद तक आदिवासी समाज के रुझान पर निर्भर करेगा.

 

झामुमो बनाम भाजपा-परंपरागत मुकाबला

झारखंड की राजनीति में आदिवासी मतदाता लंबे समय से झामुमो के पारंपरिक वोटर माने जाते हैं. इस बार भी झामुमो के सोमेश सोरेन अपने पिता पूर्व शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन की विरासत पर चुनावी मैदान में हैं.

 

दूसरी ओर भाजपा ने संगठन और केंद्रीय नेतृत्व के दम पर पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के बेटे बाबूलाल सोरेन को जीत दिलाने की पूरी रणनीति बना ली है. पार्टी गांव-गांव में मोदी सरकार की योजनाओं को गिनाने में जुटी है.

 

जयराम की पार्टी की एंट्री ने बढ़ाई बेचैनी

डुमरी विधायक जयराम महतो, जिन्होंने हाल के वर्षों में खुद को एक युवा आंदोलनकारी चेहरे के रूप में स्थापित किया है, अब घाटशिला में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश में हैं.

 

उनकी पार्टी ने यहां आदिवासी उम्मीदवार उतारा है, ताकि आदिवासी मतदाताओं में पैठ बनाई जा सके. हालांकि 2024 के विधानसभा चुनाव में उनके प्रत्याशी रामदास मुर्मू को सिर्फ 8 हजार वोट मिले थे और वे तीसरे स्थान पर रहे थे.

 

हार का अंतर करीब 90 हजार वोटों का था. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस बार वे थोड़ी बढ़त जरूर बना सकते हैं. पर फिलहाल वे जीत की दौड़ में नहीं हैं. लेकिन हार-जीत का अंतर जरूर प्रभावित कर सकते हैं.

 

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