Ranchi : भादो शुक्ल पक्ष की एकादशी को आदिवासी समाज का सबसे बड़ा प्राकृतिक महापर्व करम पर्व बड़े ही धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. यह न केवल झारखंड बल्कि भारत के अन्य हिस्सों, नेपाल और बांग्लादेश में भी यह पर्व आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है.
कृषि युग से जुड़ा है करम पर्व का इतिहास
सांस्कृतिक मानव विज्ञान की मानें तो समाज की संस्कृति और परंपराएं उसे जीवित बनाए रखती हैं. इन्हीं परंपराओं में करम पर्व प्रमुख है. यह पर्व प्रकृति, कृषि और मानव जीवन के गहरे संबंध को उजागर करता है. मानव अस्तित्व के प्रारंभिक दौर से ही प्रकृति जीवन का आधार रही है.
कंद-मूल, मछली और मांस से लेकर गेहूं, जौ और मक्का की खेती तक की यात्रा में करम पर्व ने अपनी विशेष जगह बनाई. प्राकृतिक घटनाओं और आपदाओं से जूझते हुए मनुष्य ने अच्छे-बुरे का बोध किया और प्रकृति संरक्षण के साथ ऐसे त्योहारों की परंपरा शुरू हुई.
करम वृक्ष : जीवनदायी और पूजनीय
राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा भारत (अनिबंधित) महासचिव जलेश्वर उरांव ने बताया कि करम वृक्ष दिन-रात ऑक्सीजन प्रदान करता है और जीवन चक्र को आगे बढ़ाता है. इसलिए इसे पूजनीय माना गया है. करम पर्व के पीछे कथा-कहानियां भी जुड़ी हैं जो समाज को कर्तव्य और धर्म का बोध कराती हैं.
कृषि और मौसम चक्र से गहरा संबंध
जलेश्वर उरांव ने कहा कि फसल बोने और उगाने के बाद आदिवासी समाज प्रकृति के बदलते रंगों के साथ पर्व-त्योहार मनाता है. यह पर्व हरियरी पूजा से फसल की सुरक्षा प्रदान की जाती है. कदलेटा पूजा से फसल उगने की खुशी प्रकट होती है. खेत में डाली और भेलवा डाड़ी गाड़कर कीटों से बचाव की जाती है. ये सभी परंपराएं करम पर्व की वैज्ञानिक और सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाती हैं.
करमा-धरमा : जीवन का संदेश
करम पूजा के दूसरे दिन धर्मेस देव से दुख-दर्द दूर करने की प्रार्थना की जाती है. करमा मानव का कर्तव्य, धरमा मानव का मूल्य समझाता है. ये दोनों मिलकर करम पर्व को जीवन दर्शन और संस्कृति का अद्भुत संगम बनाते है.
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