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रांची : भाषाओं का कोई सीमित दायरा नहीं- नारायण देसाई

Ranchi : रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा संकाय (टीआरएल) में सोमवार को भारतीय जनजातीय भाषाओं की दशा व दिशा विषय पर संगोष्ठी का आयोजन हुआ. मुख्य वक्ता डॉ नारायण देसाई थे. 

 

इस दौरान गोवा से आए शिक्षक, अनुवादक एवं स्तंभकार डॉ नारायण देसाई ने कहा कि भाषाओं का कोई सीमित दायरा नहीं है. भाषा सीखना और सिखाना एक सतत प्रक्रिया है. लेकिन आज के समय में भाषाओं को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है.

 

डॉ देसाई ने कहा कि भाषा संस्कृति की संवाहक होती है. संस्कृति के बिना भाषा का अस्तित्व संभव नहीं और भाषा के बिना मनुष्य की पहचान अधूरी रह जाती है. उन्होंने विद्यार्थियों से अपील की कि वे जीवन में अपने विकल्प स्वयं तलाशें, आंख मूंदकर किसी के पीछे न चलें, नए शैक्षणिक रास्ते खोजें और प्रश्न करने की आदत विकसित करें.


रोजगार की अंधी दौड़ में मातृभाषाओं को हाशिये पर धकेल दिया

उन्होंने चिंता जताई कि रोजगार की अंधी दौड़ में मातृभाषाओं को हाशिये पर धकेल दिया गया है, जबकि हर स्तर पर भाषा ही जीवन का मूल आधार है.

 

मुख्य वक्ता ने सहजीवी भाषाओं के आपसी संबंधों को समझने और उनके साथ सार्थक संवाद स्थापित करने पर भी जोर दिया. उन्होंने कहा कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि ज्ञान, संस्कृति और सामाजिक चेतना की वाहक है.

 

किसी भी परिस्थिति में मातृभाषा नहीं छोड़नी चाहिए- अभिषेक रंजन सिंह

इस अवसर पर डॉ राम मनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष अभिषेक रंजन सिंह ने कहा कि किसी भी परिस्थिति में अपनी मातृभाषा नहीं छोड़नी चाहिए.

 

साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं से प्रेम और जुड़ाव भी जरूरी है. उन्होंने कहा कि ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के लिए अन्य भाषाओं की जानकारी आवश्यक है, लेकिन अपनी भाषा से जुड़े रहना हमारी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है.

 

कार्यक्रम का संचालन डॉ किशोर सुरिन ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन विश्वविद्यालय के मुण्डारी विभाग के डॉ बीरेन्द्र कुमार सोय ने प्रस्तुत किया. संगोष्ठी में टीआरएल संकाय के पूर्व शिक्षक डॉ हरि उरांव सहित डॉ बीरेन्द्र कुमार सोय, डॉ बीरेन्द्र कुमार महतो, डॉ रीझु नायक, डॉ बन्दे खलखो, डॉ करम सिंह मुण्डा, शकुन्तला बेसरा समेत संकाय के शिक्षक, शोधार्थी और बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे.

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