Ranchi : रांची का टैगोर हिल शहर की पहचान है, लेकिन आज हालत ऐसी है कि यहां आने वाले लोग तक परेशान हो जाते हैं. हर तरफ गंदगी, फैला कचरा, टूटी सीढ़ियां, खराब लाइट, टूटे नल और उखड़े रंग - यह सब किसी बड़े भ्रष्टाचार और लापरवाही की कहानी खुद ब खुद बयान कर देता है.
आसपास रहने वाले लोगों का कहना है कि शाम होते ही यहां शराबियों का अड्डा बन जाता है, इसलिए परिवार के साथ घूमने के लिए लोग नहीं आना चाहते. जगह-जगह डिस्पोजल गिलास, सिगरेट के डब्बे और टूटे शीशे बिखरे दिखते हैं.
सुधार के नाम पर खर्च हुए करोड़ों, काम अधूरा ही रह गया
प्राकृतिक सौंदर्य व आदिम संस्कृति संरक्षण संस्थान (SPTN) ने इस जगह को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने की मांग करते हुए जनहित याचिका भी दायर की थी. इसके बाद जिला प्रशासन ने 2023 में करीब चार करोड़ रुपये की योजना पास की थी. कहा गया था कि बिना पुरानी संरचना बदले टैगोर हिल को संवारेंगे. पहले चरण में सफाई और ब्रह्म मंदिर की मरम्मत भी हुई.
मार्च 2023 में इसके संरक्षण के लिए 70 लाख रुपये भी खर्च किए गए थे. बाद में नया DPR बना और भवन निर्माण विभाग को काम की जिम्मेदारी मिली. एक साल में सब काम पूरा करने का लक्ष्य था, लेकिन आज हालत देखकर लगता है कि सब कागजों में ही रह गया.
शांति धाम और परिसर को आधुनिक बनाने की योजना भी अटकी
योजना के अनुसार, ब्रह्म मंदिर, प्रवेश द्वार और सीढ़ियों की मरम्मत, बिजली–पानी–शौचालय की व्यवस्था सुधरनी थी. कुसुम ताल, समाधि स्थल और शांति धाम के ऑडिटोरियम में लाइब्रेरी और आर्ट गैलरी बनने की योजना थी. पहाड़ चढ़ने वाले रास्ते में बैठने की जगह और पार्किंग भी बननी थी. लेकिन जमीन पर कुछ खास नहीं दिखा.
ASI ने भेजी थी रिपोर्ट, फिर भी हाल वही
SPTN की याचिका पर हाईकोर्ट के निर्देश के बाद ASI रांची सर्किल ने दिल्ली मुख्यालय को टैगोर हिल की रिपोर्ट भेजी थी. मांग थी कि 113 साल पुराने ब्रह्म मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर बनाया जाए. लेकिन नतीजा आज भी अधर में है.
2016 में भी हुआ था सौंदर्यीकरण, लेकिन सब बेकार
2016 में भी टाइल्स, बेंच, लाइट और पानी की व्यवस्था की गयी थी. लेकिन अब न बैठने की सही जगह है, न पानी की. सभी व्यवस्था टूट चुकी है.
कैसे बना टैगोर हिल?
1908 में ज्योतिंद्र नाथ टैगोर रांची आए और यहां की शांति ने उन्हें यहीं बसने पर मजबूर कर दिया. 1910 में ब्रह्म मंदिर की स्थापना की गई. यहीं रहकर उन्होंने लेखन किया और 1925 में इसी परिसर में उनका निधन हुआ. यह जगह इतिहास और भावनाओं से जुड़ी है, लेकिन आज अपनी असली पहचान खोती जा रही है.
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