New Delhi : सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में लागू धर्मांतरण विरोधी कानून को लेकर चिंता जताते हुए कहा कि इस कानून में धर्म बदलने के इच्छुक लोगों की राह कठिन कर दी गयी है. जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने सुनवाई करते हुए धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया में सरकारी अधिकारियों के हस्तक्षेप को लेकर भी चिंता जताई.
बेंच का कहना था कि यूपी सरकार ने धर्मांतरण विरोधी कानून इसलिए बनाया. ताकि किसी के द्वारा धर्म परिवर्तन किये जाने की प्रक्रिया में सरकारी मशीनरी का दखल बढ़ाया जा सके. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ने यह बात स्पष्ट कर दी कि यूपी के धर्मांतरण विरोधी कानून की वैधता पर कोर्ट अभी विचार नहीं कर रहा.
बेंच का कहना था कि भारत एक सेकुलर देश है और कोई भी नागरिक अपनी इच्छानुसार अपना धर्म बदल सकता है.
इसी क्रम में बेंच ने साफ कहा, उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर विचार करना हमारे दायरे में नहीं आता. फिर भी हम यह मानते हैं कि इन नियमों के माध्यम से सरकार ने धर्मांतरण की प्रक्रिया में अधिकारियों की दखलंदाजी को बढ़ा दिया है. यहां तक कि जिला मजिस्ट्रेट भी कानूनी रूप से धर्मांतरण के प्रत्येक मामले में पुलिस जांच का निर्देश दे सकते हैं,
सुप्रीम कोर्ट ने धर्मांतरण की घोषणा करने की अनिवार्यता पर कहा, कौन किस धर्म को स्वीकार कर रहा है, यह उसका निजी मामला है. कोर्ट ने घोषणा करने की बाध्यता को निजता के खिलाफ करार दिया.
उत्तर प्रदेश में लागू धर्मांतरण विरोधी कानून की कठोर प्रक्रिया को लेकर बेंच ने कहा कि विचार किया जाना चाहिए कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना और धर्मनिरपेक्ष प्रकृति अत्यंत महत्वपूर्ण है. हालांकि कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्ष शब्द 1976 में एक संशोधन के जरिए संविधान में जोड़ा गया था, फिर भी धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है, कोर्ट ने 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के निर्णय की याद दिलाई.
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