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रांची की संकरी गली में है एक ऐसी दुकान, जहां सबको खींच लाती है मजबूरी

Ranchi  : रांची के गंगूटोली, करबला चौक के पास, एक संकरी सी गली है. उसी गली में बैठा रहता है एक बूढ़ा शिल्पकार, साइमन बारला. चारों ओर लकड़ी के टुकड़े, बुरादे की गंध और औजारों की धीमी-धीमी आवाज. यहां कोई खुशी का कारण लेकर नहीं आता, यहां के दरवाजे तक पहुंचने का रास्ता, जिंदगी का सबसे कठिन सच, यानी मौत, दिखाती है.

 

साइमन की उम्र 60 साल है और वे पिछले 30 साल से ताबूत बना रहे हैं. साइमन कहते हैं, ये काम भी बाकी कामों की तरह है, लेकिन ग्राहक रोज नहीं आते. जब कोई आता है, तब ही कमाई होती है. एक ताबूत बनाने में करीब 1500 रुपये लगते हैं और वह 2000-2500 में बेचते हैं. मगर लोग अक्सर मोलभाव कर कीमत घटा देते हैं. जैसे - आखिरी सफर की भी कोई सस्ती सौदेबाजी हो सकती है.

 


कोविड के दिनों में उनका काम दिन-रात चलता रहा, लकड़ी की कमी के कारण प्लाई का इस्तेमाल करना पड़ा. उस समय लगभग 3000 ताबूत बनाए. कई बार गरीब लोग बिना पैसे आए और साइमन ने मुफ्त में ताबूत दे दिया या बस लागत का पैसा लिया. लेकिन इस भलाई का भी कई लोगों ने गलत फायदा उठाया.

 

कमाई इतनी नहीं होती कि महीनेभर का खर्च आसानी से चल सके. बेटा सजावट में मदद करता है, पर घर चलाना भारी पड़ता है. कभी-कभी पूरे हफ़्ते कोई ऑर्डर नहीं आता, ऐसे में चूल्हा जलाना मुश्किल हो जाता है, साइमन की आंखों में एक उदासी उतर आती है.कोविड के दौरान ही वे लकवाग्रस्त हो गए थे, जिससे काम करना और कठिन हो गया. फिर भी हथौड़े की हर चोट के साथ वे जानते हैं, यह किसी का आखिरी घर है, इसे इज़्जत से बनना चाहिए.

 

गंगूटोली की उस छोटी कार्यशाला में, जहां मौत की खामोशी फैली रहती है. साइमन बारला हर दिन  इंसानियत का सबसे भारी बोझ उठाते हैं. शायद उनकी जिंदगी खुद संघर्षों से भरी है, लेकिन वे दूसरों के आख़िरी सफर को सम्मान देना कभी नहीं भूलते.

 

 


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