रामगढ़ पुलिस का वांटेड (अब जमानत पर) राजेश राम डीजीपी के कार्यालय में लगातार आता-जाता था. लगातार मीडिया को उसने जो लीगल नोटिस भेजा है, उसमें उसने इसका उल्लेख किया है. कहा है कि उसके खिलाफ दर्ज फर्जी मुकदमों के सिलसिले में वह डीजीपी के कार्यालय में जाता था. पर, वहां वह किससे मिलता था? डीजीपी से? किसी एडीजी या किसी अन्य आईपीएस से? या डीजीपी कार्यालय में पदस्थापित इंस्पेक्टर गणेश सिंह और सिपाही रंजीत राणा से? मिलने के लिए क्या वह विजिटिंग रजिस्टर पर अपना नाम-पता दर्ज करता था?
जिनसे भी मिलता था, उसने उसे गिरफ्तार क्यों नहीं कराया? क्या ऐसा नहीं करके उस अफसर ने कर्तव्य के प्रति लापरवाही नहीं बरती? क्या उसे गिरफ्तार नहीं कराना विभागीय कार्यवाही और सीआरपीसी की धाराओं के उल्लंघन का नहीं बनता है?
वांटेड राजेश राम, जिसका आपराधिक इतिहास रहा है, वह डीजीपी अनुराग गुप्ता के कार्यकाल में कैसे और किस लिए महीनों आता-जाता रहा? अनुराग गुप्ता के कार्यकाल से पहले तो किसी ने कभी डीजीपी कार्यालय में उसे नहीं देखा? यह पूरा मामला जितना दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है, उससे कहीं ज्यादा खतरनाक उदाहरण है. अब तक इस मामले में कार्रवाई नहीं होना, पुलिस प्रमुख का मूकदर्शक बना रहना, उन्हें सवालों के दायरे में लाता है!
थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाये कि राजेश राम डीजीपी कार्यालय में जिस किसी से भी मिलता था, उसे यह नहीं पता होगा कि उसके खिलाफ वारंट जारी है. मान लेते हैं नहीं पता था. तो क्या राजेश राम ने कोई आवेदन दिया? उन आवेदनों पर संबंधित अधिकारी ने रामगढ़ पुलिस को कोई निर्देश-आदेश दिया? और अगर पुलिस ने राजेश राम को फंसाया है, उसके खिलाफ फर्जी मुकदमा दर्ज किया है, तो डीजीपी कार्यालय व रामगढ़ जिला की पुलिस ने क्या कार्रवाई की?
हर दिन थाना प्रभारियों को अलग-अलग मामलों में, बात-बात पर फोन करने वाले इंस्पेक्टर गणेश सिंह ने रामगढ़ के भुरकुंडा थाना प्रभारी को फोन करके राजेश राम के बारे में जानकारी लेना जरुरी क्यों नहीं समझा? इन सवालों का जवाब भी मिलना जरुरी है. क्योंकि इस बात की पक्की सूचना है कि इंस्पेक्टर गणेश सिंह ने पहली बार जब राजेश राम गिरफ्तार हुआ था, उसके बाद भुरकुंडा थाना प्रभारी से बात की थी. उसके मोबाइल की सीडीआर जांच से यह साबित भी हो जायेगा.
पर बड़ा सवाल यह है कि गणेश के बारे में जांच करेगा कौन? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि एसीबी का प्रभार छीने जाने के तुरंत बाद डीजीपी अनुराग गुप्ता ने इंस्पेक्टर गणेश सिंह का तबादला एसीबी से झारखंड जगुआर में कर दिया. ताकि वह पुलिस मुख्यालय में उनके साथ काम करता रहे. आखिर ऐसा क्या है इंस्पेक्टर गणेश सिंह में, जो डीजीपी कार्यालय का काम उसके बिना नहीं चलेगा? वह डीजीपी अनुराग गुप्ता का निजी कर्मचारी है या झारखंड पुलिस का? इंस्पेक्टर गणेश सिंह को सरकारी काम करने के लिए वेतन मिलता है या किसी अफसर की चाकरी करने का?
इस बीच ताजा जानकारी यह है कि लगातार मीडिया को एक ऑडियो मिला है. ऑडियो में पुलिस मुख्यालय में डीजीपी अनुराग गुप्ता के करीबी माना जाने वाला सिपाही रंजीत राणा की आवाज है. वह किसी व्यक्ति से ओड़िसा के उसी कारोबारी का नंबर मांग रहा है, जिसने अपने पत्र (पत्र की कॉपी लगातार मीडिया के पास उपलब्ध है) में यह लिखा है कि राजेश राम ने कोयला कारोबार कराने के लिए उससे 65 लाख रुपया एक ट्रांसपोर्टर के एकाउंट में ट्रांसफर कराया. कारोबारी ने पत्र किसे लिखा था, जिसके बाद उसके पैसे वापस मिले, इसका खुलासा फिर कभी.
लीगल नोटिस में राजेश राम ने ओड़िसा के कारोबारी से 65 लाख रुपये वसूलने और वापस लेने की घटना में शामिल होने से इंकार किया है. साथ ही गलत आरोप प्रकाशित करने के लिए खंडन प्रकाशित करने की मांग की है. अगर यह आरोप गलत है और वह सिर्फ अपने मामले में पैरवी के लिए डीजीपी कार्यालय आता-जाता था, तो फिर पुलिस मुख्यालय में पदस्थापित सिपाही रंजीत राणा क्यों और किसके कहने पर ओड़िसा के कारोबारी का नंबर ढ़ूंढ़ रहा था. वह जिस व्यक्ति से ओड़िसा के कारोबारी का नंबर मांग रहा है, उससे कह रहा है- वही कारोबारी, जो राजेश राम के साथ कोयला का काम करता था. आखिर डीजीपी कार्यालय में पदस्थापित सिपाही रंजीत राणा एक कोयला कारोबारी का नंबर क्यों ढ़ूंढ़ रहा था?
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