Faisal Anurag अमेरिका विदेश नीति के क्षेत्र में नए प्रयोग और नए युग में दाखिल हो गया है ? राष्ट्रपति जो बाइडेन के रक्षात्मक भाषण से तो यही संकेत मिलता है. बाइडेन ने अपने भाषण में इसका उल्लेख भी किया है. अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के बाद दिये गए उनके भाषण में न तो केवल बचाव के तर्क हावी रहे बल्कि वापसी के फैसले को सही ठहराते हुए डोनाल्ड ट्रंप को भी बराबर का जिम्मेदार बताया. आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपतियों को उनके अक्रामक रूख और बातों के लिए ही जाना जाता रहा है. यहां तक वियतनाम से हार कर निकलने के बाद भी तब के राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन के भाषणों को याद किया जा सकता है. जिसमें आक्रमकता साफ दिखती थी. हालांकि जॉनसन को इस पराजय की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. अमेरिका की वियतनाम वापसी और हार से काबुल से वापसी की तुलना हो रही है और अमेरिकी जनमत में इस पूरे घटनाक्रम पर मिलीजुली तिखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. पिउ रिसर्च सेंटर ने अपने ताजा सर्वेक्षण में बताया है कि 54 प्रतिशत अमेरिकी नागरिकों ने बाइडेन के वापसी के निर्णय का समर्थन किया है लेकिन उनकी निराशा भी साफ है. समर्थन करने वालों में निर्णय को लेकर किसी किस्म का उत्साह नहीं है. 42 प्रतिशत लोगों ने बाइडेन के निर्णय और तरीके को लेकर गहरा असंतोष प्रकट किया है. बाइडेन ने एक बड़ा एलान भी किया है कि अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के निर्णय को केवल एक घटना के बतौर ही नहीं देखा जाये, बल्कि अमेरिका एक ऐसे नए दौर में प्रवेश कर रहा है जहां अन्य देशों में तैनात अमेरिकी सैनिकों की वापसी की जाएगी. 2017 के एक आंकड़े के अनुसार दुनिया भर के लगभग 100 देशों में करीब 2 लाख अमेरिकी सैनिक हैं. इसे भी पढ़ें-उतार-चढ़ाव">https://lagatar.in/stock-market-closed-on-red-mark-after-heavy-volatility-sensex-fell-by-214-points-nifty-also-on-red-mark/">उतार-चढ़ाव
के बाद शेयर बाजार लाल निशान पर बंद, सेंसेक्स 214 अंक टूटा, निफ्टी में भी गिरावट सवाल है कि क्या बाइडेन यह संकेत दे रहे हैं किसी भलीद देश में सैनिक दखल अब नहीं करेगा. यदि लातिनी अमेरिकी और अफ्रीका के देशों को देखा जाये तो लोकतंत्र निर्यात के नाम पर अमेरिकी सैनिक दखल करता रहा है. इराक की तबाही हो या सीरिया का युद्ध बहुत कुछ कहने के लिए काफी है. वेनेजुएला जैसे देशों में तो अमेरिकी सैनिक तो नहीं हैं लेकिन अमेरिका ने वहां चुनी गयी निकोलस मुदरो की सरकार को अस्थिर करने में कोई कोताही नहीं छोड़ रहा है. बोलिबिया की याद तो सभी को ही होगी जहां के लोकप्रिय राष्ट्रध्यक्ष इवो मारोलस की गिरफ्तारी की याद तो सभी को होगी. भारी बहुमत से जीत हासिल करने के बाद भी मारोलस जो कि एक आदिवासी आइकन हैं को सत्ता से बेदखल अमेरिका ने ही किया. क्यूबा पर अमेरिकी प्रतिबंध तो लगभग पांच दशकों से जारी है. ट्रंप के जमाने में तो क्यूबा में अस्थिरता लाने के भरपूर प्रयास हुए थे. बाइडेन क्या इन तमाम नीतियों के खिलाफ बड़ा कदम उठाने का साहस दिखा सकते हैं. विदेश नीति के क्षेत्र में नया युग अमेरिका के लिए कितना प्रभावी होगा यह तो समय बताएगा. लेकिन अमेरिकी हित इसकी कितनी छूट देंगे यह भी समय ही साबित करेगा. अफगान युद्ध में अमेरिका को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है. अफगान युद्ध में 2,41,000 लोग मारे गए. इनमें 47,245 अफगान नागरिक, 2,461 अमेरिकी सेवा के सदस्य, 3,846 अमेरिकी ठेकेदार, 66,000 अमेरिकी प्रशिक्षित अफगानी सेना व पुलिस के जवान, 1,144 नाटो व अन्य सहयोगी सेवाओं के सदस्य, 51,191 तालिबान व अन्य लड़ाके, 444 सहायक कर्मचारी, 72 पत्रकार शामिल हैं. अमेरिका और पश्चिम की मीडिया अब उन गलतियों की याद कर रही हैं जो अमेरिका ने अफगानिस्तान में किये. इन गलतियों की तुलना सोवियत रूस की अफगान गलतियों से की जा रही है. अमेरिकी नेवी ग्रेजुएट स्कूल के प्रोफेसर थॉमस जॉनसन जो कनाडा के टीम कमांडर के रूप में अफगानिस्तान में रह चुके हैं ने मीडिया को बताया कि हम हार गए क्योंकि हम कभी अफ़ग़ानिस्तान को समझ नहीं पाये. जानकारों ने तो यहां तक कह दिया है कि अमेरिका की सबसे बड़ी गलती एक ऐसे राष्ट्रपति को थोपना था जो एक तरह का कठपुतली रहा और जिसे अफगानियों का समर्थन नहीं मिला. अफगानी संस्कृति और समाजिक संरचना के साथ की गयी जबरदस्ती ने भी तालिबान के समर्थन के आधार को पुख्ता किया. न तो सावियत रूस और ना ही अमेरिका अफगानी संस्कृति,समाज और उसकी संरचना को कभी समझ पायी और इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. इसे भी पढ़ें-BREAKING">https://lagatar.in/breaking-four-killed-in-chakradharpur-accident-duronto-express-hit/">BREAKING
: चक्रधरपुर में भीषण हादसा, दुरंतो एक्सप्रेस की चपेट में आकर चार की मौत दुनिया के किसी भी देश को देख लीजिए जहां भी विदेशी फौज गयी है उसने स्थानीय समुदाय के साथ किसी तरह का सम्मान और सहयोग हासिल नहीं किया है. अफ्रीका से एशिया तक इसके दर्जनों उदाहरण हैं. बाइडेन यदि विदेशनीति के नए युग की बात कर रहे हैं, दूसरे महायुद्ध के बाद पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह कहने का साहस जुटाया है. लेकिन विदेश नीतियां अकसर राष्ट्रीय हितों, पूंजी की सुरक्षा और बाजार पर अधिक से अधिक नियंत्रण को ध्यान में रख कर तय की जाती है. 1990 के बाद की दुनिया की अर्थसरंचना ने जिस तरह पूंजी के वर्चस्व उसके एकाधिकार के दौर को वैश्विक बना दिया है. विदेश नीति के संबंध इससे गहरे रूप से जुड़े हुए हैं. अफगानिस्तान में चीन और रूस की नयी भूमिका पर पूरी दुनिया की निगाह है. अमेरिका आसानी के साथ अफगानिसतान को इन ताकतों के लिए खुला मैदान बनने देगा यह तो संभव नहीं है. सैनिकों की वापसी से एक तो संकेत अब साफ हैं कि दोहा में जो तय हुआ उस पर अभी तक तालिबान और अमेरिका दोनों ही चलते दिख रहे हैं. चूंकि चीन और रूस की वैश्विक महत्वकांक्षाएं किसी से छुपी नहीं है. ऐसे में अमेरिका और पश्चिमी देश अफगानिस्तान पर अपने हितों के लिए दबाव की राह पर अमल तो करेंगे ही. अफगानिस्तान का मैदान वैश्विक ताकतों के नए प्रयोग से शयद ही बच पाये. तालिबान को लेकर अफगानिस्तान में महिलाओं की आजादी, भागीदारी और भूमिका को लेकर जो गंभीर चिंता का माहौल है और नागरिक आजादी के जो दूसरे संदर्भ हैं देरसबेर वैश्विक दखल की संभावना नकारी नहीं जा सकती. इसे भी पढ़ें-विधायक">https://lagatar.in/mla-saryu-said-it-is-impractical-to-file-a-bple-case-against-the-shopkeepers-of-sakchi-jail-chowk/">विधायक
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क्या अमेरिकी विदेश नीति के नए युग को हकीकत बना सकेंगे बाइडेन !

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