Faisal Anurag
विफलता को कामयाबी बताने का हुनर सामान्य नहीं है. यह उस कहानी की याद दिलाता है जिसमें एक व्यक्ति से पूछा गया कि यदि रास्ते में शेर मिल जाए तो तुम क्या करोगे. उस व्यक्ति ने जबाव दिया मैं क्या कर सकता हूं, जो कुछ करेगा वह तो शेर ही करेगा. फिर उसी व्यक्ति से दूसरा सवाल किया गया मान लो वह शेर चुपचाप वापस लौट जाए तब तुम क्या करोगो. अब उस व्यक्ति की बांछे खिल गयी. उस ने कहा गांव जा कर लोगों से बताउंगा कि मैंने शेर को किस तरह रास्ते से खदेड़ दिया. गांव वाले मेरी यह बात मान कर मुझे न केवल साहसी बल्कि चमत्कारी मान लेंगे. कुछ ऐसी ही राजनीतिक कोशिशें इस समय देश में हो रही है.
इस समय सबसे बड़ी कोशिश जो दिख रही है, वह है ब्रांड मोदी को हर हाल में बचाना. पिछले दो माह से नरेंद्र मोदी पहली बार आमलोगों की आलोचनाओं के शिकार हुए हैं. बंगाल की करारी हार तो पहले ही ब्रांड मोदी-शाह के जीतते रहने के चमत्कार को ध्वसत कर चुका है. यह बहस होने लगी है कि ब्रांड मोदी-शाह अपराजेय नहीं है, उसे शिकस्त दी जा सकती है. 2022 में चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है. इसमें सबसे बड़ा दांव उत्तर प्रदेश में है. किसान आंदोलन , कोविड की तबाही, गंगा में बहती लाशों का नजारा, ऑक्सीजन की कमी, योगी मोदी टकराव के संकेत और बीजेपी के आंतरिेक अंतर्विरोध तो वे बड़े कारण हैं, जो शेर और व्यक्ति की कहानी की याद दिला रहा है. सोमवार को प्रधानमंत्री का देश के नाम संबोधन में इस कहानी की झलक देखी जा सकती है. वैक्सीन संकट के लिए पूरी जिम्मेदारी एक तरह से विपक्ष शासित राज्यों की नाकामयाबी के बतौर पेश करने का प्रयास दिखता है.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट की फटकार और सवाल, विपक्ष और देशभर से उठती आवाजें और दुनिया में प्रभावित होती विश्वगुरू की छवि का असर इस संबोधन पर साफ दिखता है. यह तो पहले से तय है कि बिना सुरक्षा गारंटी हासिल किए कोई विदेशी वैक्सीन कंपनी भारत को वैक्सीन नहीं देगी. यही बात तो राज्यों के ग्लोबल टेंडर के जबाव में फाइजर सहित कुछ कंपनियों ने कहा. यह गारंटी राज्य नहीं दे सकते इसका अधिकार तो केवल और केवल केंद्र के पास ही है. अब राज्यों को ही वैक्सीन संकट के लिए जिम्मेदार बताने का खेल किया जा रहा है.
दरअसल आर्थिक क्षेत्र में माइनस 7 की गिरावट, अभूतपूर्व बेरोजगारी, मंहगाई कोविड से निपटने में चौतरफा नाकामयाबी, स्वास्थ्य सेवाओं का बेपर्दा होना और पिछले सालभर से बरती गयी. कोताही से उपजे आक्रोश से निपटने का तो यही रास्ता है कि पिछली सरकारों और विपक्ष, विपक्ष शासित राज्य सरकारों पर ही पूरी जिम्मेदारी थोप दिया जाए. ब्रांड की हिफाजत के लिए तो यही सब किया जा रहा है. वरना जबाव तो इस पर देना चाहिए कि पिछले सात सालों में जिन एम्स के निर्माण के एलान हुए उनका क्या हुआ. उनमें कितने काम कर रहे हैं और कितने अभी भी अधूरे पड़े हैं. जबाव तो इसका भी दिया जाना चाहिए कि पिछले साल कोविड से निपटने के लिए किए गए बहुप्रचारित ऑक्सीजनयुक्त दो लाख बेड कहां उड़ गए. गंगा में बहती लाशों का जबाव भी दिया जाना चाहिए था.
लेकिन इन तमाम सवालों को दरकिनार कर पूरा जोर 2022 के यूपी चुनाव पर केंद्रित है. वैक्सीन चुनावी मुद्दा यदि बनता तो नुकसान तो केंद्र और यूपी सरकार की होने वाला है. बिहार के 2019 के चुनाव को याद कीजिए, जिसमें भाजपा की ओर से केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारामण ने बिहार के सभी लोगों को फ्री वैक्सीन देने का चुनावी वायदा किया था. चुनावों की प्रेतछाया से केंद्र कब मुक्त होगा लोगों को इसी का इंतजार है. सहकारी संघवाद कोई चुनावी जुमला या जुबानी बात नहीं है. उस पर अमल भी जरूरी है ताकि संकट से निपटने के लिए विपक्ष का सहयोग भी लिया जा सके.